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इच्छा होने से ईश्वर की भाँति सभी जीव ईश्वर है - ऐसा अनुमान का आकार होगा।
क्या यह मान्य है ? यहां पुनः ईश्वर को जगत कर्ता माननेवाले अपनी असहमति प्रकट करेंगे, क्यों कि इच्छा की लगाम तो ईश्वर के हाथ में से छूटनी नहीं चाहिये, ईश्वर के हाथ में से इच्छा की लगाम छूटकर जीव के हाथ में तो जानी ही नहीं चाहिये । फिर तो कल कोई भी जीव ईश्वर को कठपुतली बनाकर नचाने लगेगा । इसीलिये ईश्वर को जगत्कर्ता मानने वालों ने इच्छा की लगाम तो ईश्वर के हाथ में ही रख छोड़ी है, अधिकार भाव से रखी है । बस, इच्छा का अधिकार इस जगत में एक मात्र ईश्वर को ही होता हैं, अन्य जीव तो कटपुतली की तरह खिलौने मात्र हैं । ईश्वर की इच्छानुसार उन पुतले - पुतलियों को क्रीडा करनी होती है, जीव कुछ भी नहीं करते, और कुछ कर सकने का उनमें सामर्थ्य भी नहीं हैं, वे तो ईश्वर की इच्छा का ही अनुपालन करते हैं । मानो, ईश्वर की इच्छा उनके लिये एक प्रकार की प्राण शक्ति है । घोड़ा या बैल स्वेच्छा से नहीं चलता - मालिक की लगाम से बँधा हुआ है । स्वामी की इच्छानुसार उन्हें चलना पड़ता है । यह दृष्टान्त देकर ईश्वर को जगतकर्ता मानने वाले बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ यह पक्ष स्वीकार करते हैं ।
सब बात सही - परन्तु घोडा या बैल भी जब स्वेच्छानुसार भाग जाता है, गाडी या बैलगाडी भी जब खींच ले जाता है, अथवा हठपूर्वक बैठ जाता है और अनेक बार कोड़ो का प्रहार करने पर भी नहीं चलता है, तब मालिक की इच्छा
और कोड़े आदि का क्या हुआ ? उस समय हम क्या समझें ? क्या... उस समय मालिक की इच्छा ऐसी ही रही होगी ? नहीं, नहीं, मालिक तो उसे चलाने के लिये बड़ा ही संघर्ष कर रहा था, कई कोड़े भी मारे फिर भी वह नहीं चला तब क्या समझा जाए ? इसी प्रकार ईश्वर की इच्छा तो न हो फिर भी जब सीता का अपहरण हुआ - तब क्या समझें ? अथवा तो कह दो कि सीता के अपहरण की इच्छा भी ईश्वर की ही थी । उस कार्य पर भी ईश्वरेच्छा की मुद्रा लगाकर उसे भी ईश्वर की इच्छानुसार हुए कार्य के रूप में स्वीकार कर लो । ईश्वर ने ही रावण के मन में ऐसी इच्छा पैदा की होगी और फिर उसी ईश्वर ने युद्ध करवा कर रावण को मार डाला और अब अपहरण की इच्छा की बदल गई और सीता को वापस लाने की इच्छा हो गई अतः रावण को मारकर सीता को वापस ले आए । उस सीता को कुछ दिन राजमहल में रखकर धोबी के शब्दों पर श्रीराम ने वन में भेज
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