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किया था तो वह शरीर कैसा था। हमारे शरीर जैसा था या देवताओं के शरीर जैसा था, दैविक था या पंचभौतिक या पौद्गलिक आदि किस प्रकार का था ? यदि कहते हो कि हमारे शरीर जैसा ही ईश्वर का शरीर था तो ईश्वर को खानपान कैसे संभव हो सकता है ? फिर उस ईश्वर ने कौन सा तप किया था ? कैसी साधना की थी ? कितने वर्षों तक की थी और किसकी साधना की थी ? और यदि ईश्वर भी दूसरे ईश्वर की साधना करे तो कितने ईश्वर मानें ? पुनः अनवस्था दोष लगेगा । तो क्या यह तपश्चर्या या साधना करने से कोई विशेष अदृष्ट निर्माण हुआ होगा ? जिसके फलस्वरुप दूसरे जन्म में ईधर इच्छा मात्र से सृष्टि की लीला कर सकताहैं ? अर्थात् यदि कहते हो कि अदृष्ट के आधार पर इच्छा फलित होती है तो अन्य जीव भी ऋषि-मुनि भी ऐसी तपश्चर्या या साधना करें तो उसका अदृष्ट निर्माण होना चाहिये या नहीं ? तब तो अन्य ऋषी-मुनि भी सृष्टि की रचना कर सकें या नहीं ?
इसके उत्तर में तो ईश्वरवादी दार्शनिक नकारात्मक बात ही कहेंगे क्यों कि इससे तो ईश्वर का अधिकार छिन जाता हैं । ईश्वर के बिना सृष्टि रचना का अधिकार किसी अन्य को है ही नहीं । यह सर्वाधिकार सुरक्षितता समाप्त हो जाती है । इस प्रकार कठिनाई दोनों ओर से हैं ।
यदि तपोबल या साधना ही फलवान हो और उसका अदृश्य फलता है, तब तो ईश्वर को इच्छा भी करने की आवश्यकता कहाँ थी । इच्छा न भी की होती, तब भी सृष्टि तो अदृष्ट के आधार पर निर्मित हो ही जाती, परन्तु इसे भी स्वीकार करने के लिये ये तैयार नहीं हैं । इस प्रकार इच्छा तत्त्व को स्वीकार करने जाएँ तो अनेक प्रश्नों के नीचे दार्शननिकों का दफन हो जाता है ? फिर से सिर उठाने का साहस भी नहीं रहता । इतना ही नहीं, बल्कि इच्छा को स्वीकार कर ईश्वर का स्वरुप ही विकृत कर डाला है । ईश्वर को इच्छाधीन - इच्छा का दास बना दिया हैं । ईश्वर गौण पर इच्छा प्रधान हो गई हैं । इस प्रकार तो ईश्वर की अपेक्षा इच्छा का महत्व बढ़ा दिया गया हैं । अंत में ईश्वरेच्छा बलीयसी कहकर पराक्षेप कर दिया जाता हैं। ईश्वर सशरीरी या अशरीरी ?
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