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(६३) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा भावयुक्त दर्शन-पूजन करने वाली भव्यात्माओं को स्वर्ग प्रदान करती है।
(६४) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा भावसमेत दर्शन-पूजन करने वाले भव्य जीवों को मोक्ष देती है।
इससे यह सिद्ध होता है कि देवाधिदेव वीतराग श्री जिनेश्वर भगवन्त की मूत्ति-प्रतिमा की एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता की परम सर्वोत्कृष्ट सिद्धि सुप्रसिद्ध है। .
(२४) अशुभालम्बन से आत्मभाव में अशुद्धता
और शुभालम्बन से शुद्धता आत्मा के भावों में अशुभ आलम्बन से अशुद्धता आती है और शुभ आलम्बन से शुद्धता आती है ।
श्रमण-साधु को संयम की शुद्धता और ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने के लिये 'श्रीदशवकालिक सूत्र' में वसति के स्थान में जहाँ साधु महाराज ठहरते हैं, वहाँ पर यदि काम-विषयवासना उत्तेजक कोई चित्र या फोटू भी हो तो ठहरने में बड़ा दूषण बताया है । देखिये
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-८६