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त्रिदोष सन्निपात है। उसके पीने से व्यक्ति का चारित्रिक पतन होता है। पतन का मार्ग 'उन्मत्त' ही स्वीकार करता है। अतः देश, जाति, समाज और स्वयं आत्मा के उत्कर्ष के लिए देवस्थानों की रचना की जाती है। भगवान की प्रतिमाएँ विधिपूर्वक उनमें बिराजमान की जाती हैं। भगवान की प्रतिमा-मूत्ति में, उनका अशेष सम्यक्चारित्र जो मानव जाति के लिए श्रेयोमार्ग का निर्देशक है, दर्शक के मन-प्राण पर अंकित होता है । जैसे किसी सुन्दरी को देखकर रागी का मन उसके प्रति आकृष्ट होता है, उसी प्रकार वीतराग प्रतिमा के दर्शन से मन में संसार की असारता के और वैराग्य की ओर प्रवृत्त होने के भाव प्रबल होते हैं। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है।
गांधीजी के 'तीन वानर' मनुष्य की भावनाओं के सूचक ही हैं। 'मूर्तिपूजा' शब्द में 'पूजा' शब्द है, उसका अभिप्राय है-सत्कार, भक्ति, उपासना; जिन भगवान की मूर्ति है उनके गुणों का वन्दन करना और उन्होंने लोक को अपने उत्तम चारित्र से सन्मार्ग दिखाया इसके प्रति प्रात्मा की अशेष गहराइयों से कृतज्ञता ज्ञापन
मूर्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-२५६