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परात् परमिदं रूपं, ध्येयाद्धय यमिदं परम् । अस्य प्रेरकता दृष्टा, चराऽचर-जगत्त्रये ॥ ३१ ॥
अर्थ-हे देवि ! विश्व के समस्त रूपों में केवल सर्वज्ञ [जिनेश्वर] देव का रूप ही सर्वोत्तम है तथा ध्यान करने योग्य पदार्थों में मात्र इन्हीं सर्वज्ञ प्रभु का ध्यान करने लायक है एवं तीनों लोकों में सिर्फ सर्वज्ञ [जिनेन्द्र देव की ही प्रेरकता देखी गई है ।। ३१ ।।
दिक्पालेष्वपि सर्वेषु, ग्रहेषु निखिलेष्वपि । ख्यातस्सर्वेषु देवेषु, इन्द्रोपेन्द्रेषु सर्वदा ॥ ३२ ॥
अर्थ-हे देवि ! समस्त दिकपालों में तथा निखिल ग्रहों में एवं सर्व देवता और इन्द्र-उपेन्द्रादिकों में सर्वदा यही सर्वज्ञदेव प्रसिद्ध हैं एवं सदा पूजनीय हैं। [अर्थात् इनसे तुलना करने वाला त्रिलोक में और कोई भी देव नहीं है ।] ।। ३२ ॥
इति श्रुत्वा शिवाद् गौरी, पूजयामास सादरम् । स्मरन्ती लिङ्गरूपेण, लोकान्ते वासिनं जिनम् ॥ ३३ ॥
अर्थ-इस तरह शिव-शंकर से सर्वज्ञदेव का स्वरूप सुनकर शिवप्रिया पार्वती, संसार में रहे जीवों का कल्याण
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-१५१