Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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भावपूर्वक प्रणाम किया जाता है। कहा है-सीमाधरस्स वन्दे अर्थात व्रत की सीमा धारण करनेवाले आराधक को मै वन्दन करता हूँ।
आजीविका की खोज में बाहर गया हुआ वीरकुविन्द जब घर लौटा, तब सूने घर को देखकर चकित रह गया। जगह जगह उसने वनमाला की खोज की, पर उसका पता न लगा। बेचारा मन मसोस कर रह गया। पत्नी के प्रेम में वह दीवाना हो गया और गली गली वह वनमाला को पुकारता हुआ भटकने लगा। उसकी स्थिती बड़ी दयनीय हो गयी।
सच ही तो है कि माता-पिता के अन्ये, नापाक और बेदरकार प्रेम के कारण कुँवारी कन्या का जीवन बनता नहीं है; अपितु वह बिगडता है। उसकी आँखों में लज्जा के बजाय निर्लज्जता आ जाती है और उसके दिलो-दिमाग में कुसंस्कार दृढ हो जाते हैं। इसके कारण बाहय दृष्टि से लावण्य संपन्न स्त्री भी अपने माता-पिता तथा अपने पति से विश्वासघात कब करेगी; यह कहना बड़ा कठिन है।
___ इसी प्रकार राजवंश के लोगों को राजनीति की शिक्षा देते वक्त जब मदिरा, मदिराक्षी और शिकार का पाठ पढ़ाया जाता है; तब उनके नसीब में मात्र प्रजा का शाप ही रह जाता है। राजेश्वरी उनके लिए भवान्तर में नरकेश्वरी बन जाती है।
मोहनीय कर्म जितना खतरनाक है, उतने अन्य कर्म नहीं हैं। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र का घात करता है। इसी के कारण जीव उल्टीचाल चलने लगता है और संसार में भटक जाता है। उसे रास्ता नहीं सूझता। कहा भी है
मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुंभरमत बादि।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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