Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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वर्ष बीत गये। प्रभु के दीक्षाग्रहण का अवसर निकट आ गया। नौ लोकान्तिक देवों ने आकर प्रभुको उद्बोधित किया। प्रभु दीक्षा ग्रहण के लिए तैयार हो गये। वो दान देकर उन्होंने लोगों की दुःख-दरिद्रता दूर की और अपने पुत्र को राज्यमार सौंपकर उन्होंने फाल्गुन सुदि बारस के दिन शुभ मुहूर्त में एक हजार राजाओं के साथ भागवती दीक्षा ग्रहण की। देवों ने प्रभु का दीक्षा कल्याणक गाजे-बाजे का साथ मनाया। दीक्षा लेते ही प्रभु को चौथा मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ।
__दीक्षा के दिन प्रभु ने बेला का तप किया था। खीर ग्रहण कर प्रभु ने तप का पारणा किया। ग्यारह महीने तक छद्मस्थ अवस्था में प्रभु ने गांव गांव विहार किया। ध्यान और तप के द्वारा उन्होंने । ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय और अन्तराय इन घाती कर्मों का अवरण हट जाते ही फाल्गुन वदी बारस के दिन उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।
देवताओं ने प्रभू का केवलज्ञान कल्याणक बनाया और समवसरण की रचना की। भगवान समवसरण में विराजमान हुए। इन्द्र महाराज ने प्रभु की स्तुति करते हुए कहा___“हे वीतराग! हम जैसे समस्त संसारी प्राणी मोह और मिथ्यात्व के गहरे अंधकार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। हमारे उद्धार हेतु ही आपने राज्य वैभव, कुटुम्ब कबीला तथा वस्त्राभूषणों का साँप की केंचुली की तरह त्याग कर महाभिनिष्क्रमण किया और कठोर । तप और ध्यान की अग्नि में चारों घाती कर्मों को जलाकर भस्म कर दिया और केवल ज्ञान की दिव्य ज्योति प्रज्वलित की।"
'आपके रोम रोम में रही हुयी भावदया का विचार जब हमें
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श्रीमुनिसबत स्वामी चरित २६ dhathaswatiyanbhandar-Urrara, Surat
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