Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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इन्द्र ने उसे मजबूती से पकड़ लिया और वे उसपर सवार हो गये । उन्हें भी अवधिज्ञान से जब यह मालूम हो गया कि यह देव गैरिक तापस का जीव है; तब उन्होंने उसे समझाते हुये कहाँ - 'हे गैरिक! तूने मेरी पीठ पर खीर की थाली रखकर भोजन किया था; इसलिये इस जन्म में तू मेरा वाहन बना है। यह ध्यान में रख कि किया हुआ - बाँधा हुआ कर्म भोगे बिना कभी नहीं छूटता । '
यह सुनकर वह देव लज्जित हुआ और शांत होकर इन्द्र का सेवक वाहन बन गया ।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में यही अंतर है । सम्यक्त्व की आराधना से जीव का उत्तरोत्तर विकास होता है और मिथ्यात्व के कारण उसका विकास रुख जाता है तथा अधःपतन भी हो जाता है । मिथ्यात्व ही जीव को चतुर्गति में भ्रमण कराता है। इसलिये सम्यक्त्व की आराधना दृढ़तापूर्वक करनी चाहिये ।
भगवान श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने 'तिन्नाणं तारयाणं' बिरुद को सार्थ करते हुये अनेक जीवोंका उद्धार किया और अन्त में शुक्ल ध्यान में लीन होकर शेष अघाती कर्मों का नाश करके अपनी चरम देह के त्याग के पश्चात सिध्द शिलापर बिराजमान हुये । मल्लीनाथ भगवान के निर्वाण के चौवन्न लाख वर्ष पश्चात् उनका निर्वाण हुआ ।
+ महावीर वाणी
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे ।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ । ।
जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योध्दाओं को जीतता है उसकी अपेक्षा जो पुरुष मात्र स्वयं को जीतता है, उसकी विजय परम विजय है।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ४८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Omara, Surat
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