Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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युति-प्रतियुति, षडाष्टक या बीये-बारहवें के योग में हो; तो भी
जातक को परेशान किये बिना रहते नहीं है। ( सारांश यह है कि शनि महाराज यदि नीचगृह में, शत्रुस्थान
में या पापदृष्टि होंगे तो वे जातक को अपना चमत्कार दिखाये बिना नहीं रहेंगे और यदि वे उच्च ग्रह में, मित्र स्थान या शुभदृष्टि होंगे, तो वे जातक को निहाल कर देंगे। शनि की अवकृपा से बचने के लिए मनुष्य को कोई न कोई उपाय ढूँढना ही पड़ता है। .. नौ ग्रह और दस दिक्पालादि देव सम्यग्दृष्टि होने के कारण
तीर्थकर परमात्मा का चरण शरण ही उन्हें प्रिय है। शनि महाराज का वास श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के चरणों में है; अतः शनि की अवकृपा को प्राप्त मनुष्य के लिए श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की
आराधना इष्ट है। श्री मुनिसुव्रत स्वामी की सेवा-पूजा और मंत्र ___ जाप से शनि की अवकपा उससे दूर हो जायेगी।
अरिहंत देव, पंच महाव्रतधारी गुरु और दया से विशुध्द जैन, धर्म की आराधना ही अनिकाचित कर्मों को क्षीण करती है। अन्य सब उपाय छोड़कर सन्मार्ग ग्रहण करके अपने पूर्वार्जित पापों का क्षालन करना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। - कर्मों के दो विभाग हैं - निकाचित और अनिकाचित।। निकाचित कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। उसे भोगे बिना | छुटकारा नहीं; पर अनिकाचित कर्म भोगे बिना भी धर्म की आराधना से नष्ट किये जा सकते हैं, उनका क्षय करना कठिन नहीं
हैं।
पंच महाव्रतधारी मुनिराजों के सत्समागम से आत्मा का सत्पुरुषार्थ जागृत होता है और अरिहंत परमात्मा के साथ तादात्म्य
amaswami Gya श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ५८ umalaya
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