Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
View full book text
________________
स्वरूप के विषय में वे कोई पक्का निर्णय नहीं ले सके ।
अपना जीवन उन्होंने इसी प्रकार पूरा किया। मरणोपरान्त भव भ्रमण करते करते उनकी आत्मा ने वर्तमान जन्म में घोडे का शरीर प्राप्त किया । हे राजन् ! तुम्हारे पास जो घोडा है; उसमें उसी सेठ की आत्मा है । यह घोडा ही अनेक जन्म पहले सागरदत्त सेठ था ।
सागरदत्त की मृत्यु से जिनधर्म को बड़ा दुःख हुआ । मित्र की मृत्यु से दुःख होना स्वाभाविक ही है। वे अब अधिक श्रद्धापूर्वक धर्म की आराधना करने लगे । 'शिवमस्तु सर्व जगतः ' की भावना से वे ओपप्रोत हो गये थे । वे चाहते थे कि सब जीव परोपकारी बनें ।
अपनी अन्तिम अवस्था में उन्होंने पापों की आलोचनापूर्वक अन्तिम आराधना की। अरिहंत, सिध्द, साधु और केवली प्रणीत धर्म की शरण स्वीकार करके उन्होंने आमरण अनशन किया और देहत्याग के पश्चात् उन्होंने देवगति प्राप्त की ।
हे नृपति! उस जन्म में मै जिनधर्म था और यह अश्व सागरदत्त । हम दोनों की आत्मिक मित्रता के कारण ही उसके कल्याणक की भावना से ही मेरा यहाँ आगमन हुआ है ।
परमात्मा के मुख से अश्व का वृत्तान्त सुनकर राजा ने उस अश्व को मुक्त कर दिया। अश्वने भी परमात्मा के प्रवचन से प्रभावित हो कर छह महिने तक श्रावक के व्रतों का पालन किया
और अन्त में अनशन पूर्वक देहत्याग करके उसने सौधर्म देवलोक प्राप्त किया। वह देव अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव को जानकर उसी समय पुनः प्रभु के समवसरण में आया और उसने प्रभु कौ
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३९
Surat
Shree Sudhar Swami Syarbhand
maragyanbhandar.com
;