Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust

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Page 58
________________ अश्वावबोध अहिंसा, संयम और तप धर्म का विराधक कोई एक जीव किसी जन्म में भगवान श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की आत्मा से संबंधित था । भवभ्रमण करते करते वह इस जन्म में तिर्यच गति में अश्व पर्याय में उत्पन्न हुआ था । वह अश्व भरुच नगर के राजा जितशत्रु की अश्वशाला में जीवन यापन कर रहा था । वह अश्व पुण्यवान होने के कारण सब अश्वों में सर्वोपरि था और राजा का प्रियपात्र था। राजाने उसके लिए खास सेवक की व्यवस्था की थी । वह उसे खरहरा करता, नहलाता और दाना-पानी डालता था। वह जातिवन्त अश्व रूप रंग और डीलडौल से भी दर्शनीय था । परमात्मा मुनिसुव्रत स्वामी का समवसरण जहाँ पर विद्यमान था, वहाँ से भरुच नगर साठ योजन दूर था। उस अश्व का पुण्योदय हुआ और अचानक प्रभु ने भरुच नगर में पदार्पण किया। देवों ने कोरण्ट वन में समवसरण की रचना की और प्रभु वहाँ विराजमान हुये । राजा जितशत्रु उस अश्व पर दल-बल सहित प्रभु के दर्शन के लिए पहुँचा और प्रभु को वन्दन कर समवसरण में उपदेश सुनने लगा । प्रभु ने अपने प्रवचन में सर्व विरति धर्म और देश विरति धर्म की प्ररूपणा की और कहा 'अरिहन्त परमात्मा की अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा ही प्रमुख आलंबन होती है। जो भाग्यशाली तीर्थकर परमात्मा की श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ३४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara, Suret www.annalagyshbhandar.com

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