Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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जैन धर्म और जैन दर्शन अहिंसा प्रधान ही है; इसलिए तो किसी कवि ने कहा है -
तीन लोक में भर रहे, थावर जंगम जीव । सब मत भक्षक देखिये, रक्षक जैन सदीव | अपने सन्मुख जिज्ञासू जनों को उपस्थित देखकर मुनिराज ने अपनी पीयूषवर्षिणी देशना प्रारंभ की। उन्होंने कहा
अपनी आँखो से दिखाई देनेवाला यह संसार तत्वदृष्टि से सर्वथा असार है । जीवन पानी के बुलबुले सा है, जवानी कांच की चुडी सी है, रईसी बिजली की चमक सी है, पारिवारिक प्रेम सरिता प्रभाव सा है, अधिकार हाथी कान सा चंचल है और यह शरीर भी मिट्टी के पात्र के समान नाशवान है । कहा भी है
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जीवन गृह गोधन नारी, हयगय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय भोग छीन थाई, सुर धनु चपला चपलाई ।।
यौवन, घर, गाय, बैल, द्रव्य, स्त्री, घोडा, हाथी, आज्ञाकारी नौकर तथा इन्द्रियों के विषय भोग ये सब क्षणिक हैं, स्थायी नहीं है । इनका अस्तित्व बिजली के अस्तित्व सा चंचल है । संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है ।
यह देह मांस, खून, पीब और विष्ठा की थैली है - गठरी है । हाड़, चरबी आदि अपवित्र वस्तुओं के कारण मैली है। सरस और सुगंधी द्रव्यों का इस देह पर चाहे जितना विलेपन करो, कुछ समय बाद वे सब द्रव्य इसी शरीर के कारण घृणास्पद और दुर्गंधमय बन जायेंगे ।
श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ११
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