Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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अवलंबन ले कर आकाशमार्ग से अष्टापद तीर्थ पर गये थे और वहाँ उन्होंने पन्द्रहसौ तापसों का उद्धार किया।
अगला स्थान है संयमधारी का। जो पुरूष संसार तथा संसार के सुखों को पापोत्पादक, पापवर्धक और पाप परंपरक मानकर उनका त्याग कर संयम ग्रहण करता है, वह संयमी है। सतरहवें स्थानकम में संयमी साधक की आराधना की जाती है।
___ अठारहवाँ स्थानक है नूतनज्ञान । आगमज्ञान के आलोक में जिस नूतन श्रुतज्ञान को प्राप्त कर आराधक आसवों का त्याग कर संवर मार्ग अपनाता है, वह नूतन श्रुतज्ञान भी आराध्य है।
उन्नीसवाँ स्थान हैं जिनेश्वर देव का। जिन वे है जो राग-द्वेषादि अभ्यन्तर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। कहा भी है
रागद्वेषादि शत्रून् जयतीति जिनः आत्मोत्थान के लिए 'जिन' की आराधना भी अनिवार्य है।
अन्तिम स्थानक है तीर्थ। जो तारता है, वह तीर्थ है। तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियाँ तीर्थ हैं। इनकी आराधना भी आराधक के लिए अनिवार्य है।
राजर्षि सुरश्रेष्ठ ने इन बीस स्थामकों की उत्कृष्टतम आराधना की और तीर्थकर नाम कर्म निकाचित किया। इन बीस स्थानकों की आराधना बाहय एवं अभ्यन्तर तपपूर्वक की जाती है। राजर्षिने निरतिचार चारित्र पालन किया और अन्तिम समय में अनशनपूर्वक देहोत्सर्ग करके प्राणत देवलोक प्राप्त किया।
पुण्य कर्म की चरम सीमा तीर्थकर परमात्मा के चरण कमलों में समाप्त होती है। पुण्यकर्म की चरम सीमा है तीर्थकर नाम कर्म। श्री तीर्थकर परमात्मा की आत्मा तीर्थंकर भव के पूर्व तीसरे भव में
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित १८ ... Shree Sudhamaswami Gvanbhandar-Umara, Surat
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