Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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उपदेश ग्रहण कर वह महल में लौट गया। उसने पुत्र को राज्य सौंप दिया। फिर अपने पुत्र से और परिवार जनों से संयम ग्रहण करने की अनुमति प्राप्त की और शुभदिन, शुभनक्षत्र, शुभयोग और स्थिरलग्न आने के उपरान्त जब स्वयं का चन्द्रस्वर आया तब उसने गुरू महाराज से दीक्षा अंगीकार की।
मनुष्यजन्म, आर्यकुल, पंचेन्द्रिय परिपूर्णता और धर्म आदि की प्राप्ति पुण्योदय से होती है; पर इससे आगे बढ़ने में पुण्य कर्म के साथ साथ आत्मपुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। पुरुषार्थ के बिना संयमपालन, गुणस्थान आरोहण, यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञान प्राप्ति असंभव है। संयम की प्राप्ति पुरुष के पुण्योदय से होती है; पर चारित्र के पालन में मोह कर्म का क्षय या उपशम करना पडता है और यह पुरुषार्थ के बिना संभव नहीं।
मुनि सुरश्रेष्ठ ने संयम की आराधना शुरू की। उनका लक्ष्य था तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन। इस दिशा में उन्होंने अपना प्रयत्न शुरू किया। सामान्य केवली अन्य जीवों के उपकारी हो भी सकते है और नहीं भी हो सकते; पर तीर्थंकर केवली संसार के समस्त जीवों के उपकारी होते हैं। वे धर्म मार्ग का प्रवर्तन करते हैं; इसीलिए सुरश्रेष्ठ तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करना चाहते थे।
बीस स्थानक तप की आराधना से तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन होता है। इस तप में बीस ऐसे स्थान है; जो श्रेष्ठतम है और आत्मोन्नति का चरमशिखर प्राप्त कराते हैं।
स्थानक दो प्रकार के होते हैं - द्रव्य स्थानक और भाव - स्थानक। शराब घर, वेश्या घर, परस्त्री का आवास, जुआ घर, . शिकारगाह, बाजार, सिनेमा घर आदि भी स्थानक ही हैं, पर इनके
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