Book Title: Munisuvrat Swami Charit evam Thana Tirth Ka Itihas
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Rushabhdevji Maharaj Jain Dharm Temple and Gnati Trust
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मरणोपरान्त वे दोनों अकर्मभूमि क्षेत्र में युगलिक रूप में उत्पन्न
हुए।
उन दोनों की मृत्यु से वीरकुविन्द को अत्यन्त हर्ष हुआ। हर्षातिरेक में वह बोला, "अच्छा हुआ दोनों मर गये। पापी अपने खुद के पापों से ही मरता है। पापी पापेन पच्यते।" अब वीरकुविन्द को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह जंगल में जा कर तप करने लगा। उसका तप बाल तप था। वह अज्ञान से भरा हुआ था। इस प्रकार तप करते करते वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और मर कर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ।
देवताओं को अवधिज्ञान होता है। अपने अवधिज्ञान के उपयोग से उसने यह जान लिया कि वनमाला और सुमुख राजा युगलिक रूप में उत्पन्न हुए हैं। यह जानकर उसके मन में बदला लेने की भावना उत्पन्न हुई। उसने सोचा कि पिछले जन्म में इसने मेरा घर बरबाद किया था, मेरी औरत को यह भगा ले गया था; अतः अब इसे यह बतला देना चाहिये कि पाप कर्म और कामासक्ति का फल (परिणाम) कितना भयंकर होता है।
इस प्रकार सोचकर वह बदला लेने के लिए उचित अवसर ढूँढने लगा। संसार के इस मायाजाल में बांधे गये कर्म का हिसाब पूरा किये बना छुटकारा नहीं होता। हर जीव को अपना हिसाब किसी न किसी जन्म में चुकाना ही पड़ता है। बैरी अपना बैर वसूल किये बना नहीं रहता। कमठ ने दस-दस भव तक मरुभूति से अपने वैर का बदला लिया था।
देवगति को प्राप्त वीरकुविन्द उन दोनों से बदला लेना चाहता है। उन्हे दुर्गति में पहुँचाना चाहता है; पर यह काम बड़ा
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श्रीमुनिसुव्रत स्वामी चरित ५ Shree Sudhalmaswami Syanbhandar-Umara;-Surat-.---.wrumaragyanbhandar.com