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कारण अब सर्व धर्मोका संरक्षण करनेवाला ब्रिटिश राज्य होजानेसे नहीं रहे तो भी अब जिन जैन माईयोंके हातमें वे भंडार है वे उनको खोलने नहीं देते है जिससे पुस्तकोंका उनमें पडे पडेही नाश होरहा है. इसका फल यह होता है कि जिन द्रव्यवान पुरुषोंने भविष्यत्की प्रजाका उपकार करनेके लिये जिन ग्रंथोकी रक्षा कीथी उन पुस्तकोंकी रक्षा होने के बदले अब नाश होता है और इसका कारण वे लोग बन रहे हैं. उनका नाश होना, अब किस प्रकारसे रूक सकता है, यह बात सब लोकोंके विचार करनेकी है. पूर्व कालमें ग्रंथ लिखनेवाले कुशल होनेके कारण ताडपत्रादिपर सुंदर अक्षरोंसे शुद्ध ग्रंथ लिखतेथे परंतु, अब वह लिखनेकी प्रणाली देखने में नहीं अत्ती. आज काल तो जो ग्रंथ लिखे जाते है उनका अधिक भाग अशुद्ध रीतिपर लिखा हुआ देखा जाता है, इस समय विद्वान्, साधु महाराजाओंकी संख्या थोडी होनेसे ऐसे अशुद्ध पुस्तकोंको शुद्ध करनेके लिये जितने प्रयासकी आवश्यकता है उतना नहीं होता, इस लिये ऐसे ग्रंथोसे भविष्यत्की समुदायको कई जगहमे लाभ होनेकी अपेक्षा हानि होना संभव है. हालमें ग्रंथ छपवानेका काम आरंभ हुआ है परंतु जो ग्रंथ छपाने योग्य हो उनको अच्छे अक्षरोंमें, उत्तम कागजपर, शुद्धतापूर्वक छपवानेमें किसी तरहकी आशातना नहो इस तरहसे, अपनी आजीविकाके लिये नहीं परंतु उनके संरक्षणके हेतुसे छपाना चाहिये, परंतु जीनप्रतिमाकी छबी तो बीलकुल न छपानी चाहिये. किसी तरहसे शुद्ध लिखे हुए और छपे हुए ग्रंथ जो अभीतक विद्यमान हैं वो एक स्थानपर एकत्र होना चाहिये. ज्ञानही मनुष्यका परमजीवन है, और ज्ञान बिना मनुष्यका जीना बिलकुल अंधकारमय है; शासनकी उन्नति और भव्य जीवोंके तरनेका उपाय ज्ञानही है, इसी लिये पूर्वपुरुषोंने उपकार बुद्धिसे जो अपूर्व ग्रंथोका हमको लाभ दिया है, उनको संपूर्ण रीतिसे रक्षा करना वे में इस कॉन्फरन्सका मुख्य कर्तव्य समजता हुं.
जैसे ज्ञान धर्मकी उन्नतिका मुख्य साधन है, वैसही जीनेश्वर भगवानने जो ज्ञानका उपदेश किया है वह जीनेश्वर भगवानकी प्रतिमा और मंदिर धर्मकी उन्नति और प्राणियोंको संसारसागरसे पार लगानेका परम साधन है. क्योंकि हमपर उपदेशामृतका महा उपकार कर जाने वाले परमात्मा तीर्थकर भगवान् अब विद्यमान नहीं है, इस लिये उनकी प्रतिमा बनाकर उनकी भक्ति तन मन धनसे करना हमारा मुख्य कर्तव्य है, और संसारसागरसे पार होने के लिये परम साधन है. लाखों और क्रोडों रुपये खर्च कर जैसे पूर्व समयके धनाढ्य पुरुषोंने जीन मंदिर बनवाये है, वैसेही संप्रति महाराजा, कुमारपाल महाराजा, वस्तुपाल तेजपाल, विमलशाह, जावडशाह, धनाशाह, और कर्माशाह आदि बहुत उपकारी जनोंके अनर्गल द्रव्यके व्ययसे बंधाए हुए मंदिर आजतक हमारे देखनेमें आते है. उनमेंसे कितनेक जैन मंदिरोंका अभाव मुसलमानी राज्यमें होगया और कई स्थानोमें उन मंदिरोंके खंडहर देखनेमें आते है; और तीर्थादि भूमिपर मंदिर अभी जहां २ विद्यमान हैं उनमें कई तो जीर्णप्राय होगये है. कई जैन मंदिरोकी कारीगरी ऐसी उत्तमप्रकारकी है कि पश्चिमी इटाली आदि देशोंके उत्तम कारीगरभी उनको देखकर चकित हो जाते हैं और उनको देखनेके लिये बहुतसे अन्य धर्मी और अंग्रेज भी बारंबार आतेहै. ऐसे पुराने जैन मंदिरोंकी रक्षा करना हमारा खास कर्तव्य है। क्योंकि श्री हेमचंद्राचार्यजीने अपने बनाये दुए योगशास्त्र नामक प्रथमें लिखाहै कि नवीन जैन मंदीर बनानेकी अपेक्षा जीर्ण मंदिरके सुधरानेसे अठगुना
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