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जैनी लोगोंकी हालत होगई हैं, उसका फोटो श्री श्री श्री १००८ श्री आनन्दविजय - सूरि ( आत्माराजजी ) महाराजने “ अज्ञानतिमिरभास्कर" में अच्छी तरह से खैंचा है. महाराजजी साहिब फर्माते हैं कि " जैनमतके बहुतसे शास्त्र म्लेच्छराजाओंने जला दिये और जो कुछ बच रहे वह भंडारोंमें बन्ध पडे हैं, कोई उनकी सार संमाल नहीं लेता. बहुतसे शास्त्र पडे पडे गल गये हैं, और अगर यही हाल रहा तो बाकी दोसौ तीनसैौ वरसमें गल जायेंगे. जैसे जैनलोग. अन्य कामों में लाखों रुपया खर्चते हैं वैसे जीर्ण पुस्तकों का उद्धार करानेमें कुछ नहीं खर्चते और न कोइ जैनशाला बनाके अपने लडकोंको संस्कृत धर्मशास्त्र पढाते हैं और जैनी साधू भी प्राय: विद्या नहीं पढते हैं, क्योंकि उनको खानेको ताजा माल मिलता हैं वह पढकर क्या करे ? और कितने जती लोग इन्द्रियोंके भोग में पड रहे हैं सो विद्या क्योंकर पढ़ें ? विद्या न पढनेसे तो लोग इनको नास्तिक कहने लग गये हैं फिर भी जैन लोगोंको लज्जा नहीं आती ?" प्रिय जैन बन्धुओ ! महाराजजीका लेख बहुत दुरुस्त है, क्योंकि जब जैनलोग खुदही जैनमतकी प्राचीनता और महत्वतासे नावाकिक है ( धार्मिक शिक्षाके अभावके सबबसे ) तो फेर वोह और लोगों पर जैनमतकी प्राचीनता और महवता किस तरह जाहिर कर सकते हैं ? इसलिये संसारसमुद्रसे पार उतर कर मोक्षकी प्राप्तीके लिये और जैनकोमकी उन्नतीके लिये धार्मिक शिक्षाकी अतीव जरुरत है, यहि नहिं बल्कि उन तमाम कामोंको पूरा करनेके लिये जो इस कॉन्फरन्सने स्वीकार किये हैं और खुद कॉन्फरन्सकी तरक्की के लिये सबसे ज्यादा शिक्षाकी जरुरत है और इस धार्मिक शिक्षाके फैलाने के लिये एसे Institutions यानि हाइस्कूल और संस्कृत पाठशालाओंकी जरुरत हैं कि जहां सांसारिक शिक्षाके साथ साथ धार्मिक शिक्षा भी मिलती रहे. प्रिय भ्रातृगणो! अभी मेरे प्यारे भाई सेठ गुलाबचंदजी ढड्ढा एम. ए. ने फरमाया था कि आजकल के जैन ग्रेज्युएट प्रायः जैनमतको छोड बैठते हैं और जैनमतसे नफरत करने लगते हैं सो ठीक है इसमें उनका क्या कसूर है ? हमाराही कसूर है. क्योंकि उनको बचपनसेहि एसे Institutions में शिक्षा हासल करनी पडती है कि जहां यातो धार्मिक शिक्षा दीही नहीं जाती या जैनमतसे प्रतिकूल शिक्षा मिलती है. इसवास्ते ए मेरे प्यारे जैन बन्धुओ ! आपपर जाहिर हो गया होगा कि इस संसारसमुद्रसे पार उतरनेके लिये, जैनकौमकी उन्नती के लिये, कॉन्फरन्सकी तरक्की - के लिये, जैन ग्रेज्युएटको नास्तिक बननेसे रोकने के लिये सांसारिक शिक्षाके साथ साथ धार्मिक शिक्षा भी मिलनी चाहिये और इसलिये जगह जगह जैन हाइस्कूल और संस्कृत पाठशालायें चा लाइब्रेरी खोलनी चाहियें कि जिससे जैनकौम वा जैनमत फिर उसी अरुज पर पहुंच जावे कि जो इसने एक जमाने में हासिल किया था. अब च्यूंकि मेरे व्याख्यानका समय हो चुका है, इसलिये आखीरमें मै भगवत देवसे यही प्रार्थना करता हुं कि यह कॉन्फरन्स हमेशा कायम रहे और दिनपर दिन इसकी तरक्की हो. इन लफजोंके साथ मै अपना व्याख्यान खतम करनेके लिये सभासे आज्ञा मांगता हूं. ॐ ! शान्तिः ! शान्तिः ! शान्तिः !
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