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लोग सहज होते हैं। वे जान चुके होते हैं अपने आप को। वे जान चुके होते हैं परिवर्तनशीलता को। वे जान चुके होते हैं इसीलिए वे सहजता के मालिक बन जाया करते हैं। कठोपनिषद् सहजता का शास्त्र है।
जिनके भीतर अपने प्रति जिज्ञासा जगी, आत्म-चिंतन के भाव जगे, ब्रह्म-विद्या को सीखने की ललक पैदा हो गई, ऐसे लोगों के लिए कठोपनिषद् आत्मा के क़रीब ले जाने वाली प्रकाश की किरण साबित होता है। इसलिए मैं तो कहूँगा, यह कोई कठिन उपनिषद् नहीं है। कठिन तो उनके लिए है जिनका आत्म-विद्या, ब्रह्म-विद्या से कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग तेनजिंग और हिलेरी की तरह हिमालय की चोटी पर चढ़ने के लिए तत्पर हो चुके हैं, ऐसे आत्मविश्वासी, आत्म-जिज्ञासु लोगों के लिए कठोपनिषद् एक वरदान है, सौगात है। अध्यात्म के रास्ते पर चलने वालों के लिए मील का पत्थर है।
ख़ुद के भीतर ललक, अभीप्सा, प्यास है तो यह कठोपनिषद् आपके लिए बहुत-कुछ कर सकता है। आइए, समझें कि यह उपनिषद् हमें क्या दे सकता है। यह उपनिषद् सबसे पहले एक कहानी कहता है। कहानी है उद्दालक और उनके पुत्र नचिकेता की। यज्ञ का फल चाहने वाले ऋषि उद्दालक ने अपना सारा धन ब्राह्मणों को दान देने का फैसला किया।
__ मानवजाति के उत्थान के लिए धर्म ने अलग-अलग सोपान दिए हैं। पतंजलि ने अपने तरीके से रास्ता बताया, तो महावीर ने अपने तरीके से। कृष्ण की गीता कुछ और कहती है तो बुद्ध का धम्मपद कुछ और कहता नज़र आता है। ये सारे शास्त्र अलग-अलग तरीके सुझाते हैं, पर एक बात तय है कि सबके तरीके भले ही अलग-अलग हों, लेकिन मंज़िल सबकी एक है। सत्य सबका एक है। सबका मालिक एक है। ___ जहाँ समझ कम होती है, उनके लिए रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं; लेकिन जो लोग महावीर के अनेकांत के राही बन जाते हैं, उनके लिए मंज़िल मुख्य होती है। कोई उपवास के रास्ते मंजिल तक पहुँचता है, तो कोई ध्यान के रास्ते। किसी को दया का रास्ता रास आता है, तो किसी को भाईचारे में भगवान नज़र आता है। रास्ता जो भी हो, मूल बात तो मंज़िल तक पहुँचना है।
मुसलमान पाँच वक़्त की नमाज़ से अपने ख़ुदा को खुश करते हैं। सिख वाहेगुरु का जाप करता है, गुरुद्वारे में मत्था टेकता है, गुरुबाणी सुनता है। जैन है तो अहिंसा, शांति, अपरिग्रह के सिद्धांत को जीवन में उतारता है; बौद्ध करुणा और प्रज्ञा की राह पर चलता है। ईसाई प्रेम व सेवा को महत्त्व देता है। जो इंसान जिस परंपरा
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