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सब-कुछ छोड़कर प्रभु की प्रार्थना में समय लगा दो।' सात दिन बाद उसकी मृत्यु तो नहीं होती, लेकिन तब तक वह प्रभु के पथ का राही बन चुका होता है।
एक सज्जन ने पूछा, 'आप दिन भर में कई काम एक साथ कर लेते हैं, ऐसे में प्रभु को याद कब करते हैं ?' मैंने उसे बताया, एक महिला पनघट से पानी भरकर कलश सिर पर रखकर घर लौटती है, तो रास्ते में कई काम एक साथ करती चलती है। वह अन्य महिलाओं से बतियाती भी है, अपने दुधमुंहे बच्चे को चलते-चलते दूध भी पिला देती है, रास्ते में सब्जी भी खरीद लेती है। इतने काम करते हुए भी उसका ध्यान पानी के कलश की तरफ से नहीं हटता। यह तो आत्म-बोध है। ठीक उसी तरह संत सब-कुछ करते हुए भी प्रभु की प्रार्थना भी कर लेते हैं । जो व्यक्ति जीवन में तृप्त हो चुका है, वह यदि मृत्यु की पदचाप भी सुन लेता है, तो विचलित नहीं होता। वह तब भी प्रभु की भक्ति में अपने को लीन रखने में सफल हो जाता है। उसके लिए मृत्यु जीवन का उपसंहार हो जाया करती है।
एक मुस्लिम फ़कीर की कहानी है। मुहम्मद सैय्यद एक बड़े संत थे। वे निर्वस्त्र रहते थे। पूरी तरह अपरिग्रही। सम्राट शाहजहाँ इन्हें बहुत मानता था। दारा शिकोह भी इनका भक्त था। वे कहा करते थे - मैं यहूदी भी हूँ, हिन्दू भी, मुसलमान भी। मस्जिद
और मंदिर में लोग एक ही भगवान की उपासना करते हैं । जो काबे में संग-असवद है, वही दैर में बुत है।
सम्राट औरंगज़ेब दारा और सैय्यद साहब से चिढ़ता था। उसने उन्हें पकड़ मँगाया। मज़हबी मुल्लाओं ने उन्हें धर्मद्रोही घोषित कर सूली की सज़ा सुना दी, पर सैय्यद साहब को इससे बहुत ख़ुशी हुई। वे तो सूली की बात सुनकर आनंद से उछल पड़े ! सूली पर चढ़ते हुए वह बोले - 'आज का दिन मेरे लिए बड़े सौभाग्य का हैं । जो शरीर प्रियतम से मिलने में बाधक था, आज वह इस सूली की बदौलत छूट जाएगा।' सैय्यद साहब ने कहा – 'मेरे दोस्त, तू किसी भी रूप में क्यों न आ, मैं तुझे पहचानता हूँ। आज तू सूली के रूप में आया, मैं फूल के रूप में तुम्हारे पास आ रहा हूँ।'
जो लोग सूली में भी साहब को देखते हैं, उनकी तो बात ही निराली है। ऐसे लोग मृत्यु का स्वागत करते हैं। जो लोग देश की आज़ादी के नाम पर शहीद होते हैं। उनकी शहादत भी शीश को गौरवान्वित करती है। जिन्हें जीवन और मृत्यु की समझ है, वे कहते हैं - धन्य है मृत्यु तुम को, तुम आती हो और हमें पाप-मुक्त कर यहाँ से ले जाती हो। हमारे कल्याण में तुम सहयोगी बन जाती हो। मृत्यु हमारी मित्र है। वह शरीर से मुक्त कर हमें एक बाना, वेश दे दिया करती है जिसे कभी बदलने की इच्छा नहीं होती। कठोपनिषद् की इस इक्कीस दिन की यात्रा में हमने मृत्यु के कई रूप देखे और मेरा
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