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चिंता थी । आखिर उसने पिता से कड़वा संवाद करना उचित समझा। नचिकेता ने पिता से कहा कि आपको श्रेष्ठ दान करना है । आप मुझे श्रेष्ठ मानते हैं तो जरा बताएँ, आप मुझे किसको दान देंगे ? यह सुनकर उद्दालक आवेश से भर उठे और उन्होंने जो कुछ कहा, वह पहले कभी किसी पिता ने अपने पुत्र को न कहा होगा ।
कठोपनिषद कहता है, नचिकेता ने पिता से पूछा, 'हे पिताश्री ! आप मुझे किसको देंगे ? पिता ने एक बार में उत्तर न दिया । नचिकेता ने फिर पूछा। वे निरुत्तर रहे । तीसरी बार फिर नचिकेता ने सवाल पूछा तो उद्दालक ने कहा, 'जा मैं तुझे मृत्यु को देता हूँ ।'
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नचिकेता ही नहीं, वहाँ मौजूद सभी लोग यह सुनकर स्तब्ध रह गए होंगे, पर अब क्या हो सकता था। वाणी रूपी तीर कमान से निकल चुका था । इसीलिए कहा गया है, जो कुछ बोला जाए, पहले उसे अक्ल की तराज़ू पर तौल लिया जाए। बाद में पछताने से कुछ भी हाथ नहीं आता । मनुष्य तीन तरह के होते हैं - पहले वे, जो सोच नहीं सकते दूसरे वे, जो सोचना नहीं चाहते और तीसरे वे, जिनमें सोचने का साहस नहीं होता । आप किसी सोए व्यक्ति को तो जगा सकते हैं, लेकिन जो व्यक्ति सोने का ढोंग कर रहा है, उसे नहीं जगाया जा सकता। जो सोच ही नहीं सकते, वे मूर्ख होते हैं। जो सोचना ही नहीं चाहते, वे अंधविश्वासी होते हैं। जिनमें सोचने का साहस नहीं होता, वे गुलाम होते हैं । वे किसी और के नहीं, अपने ही गुलाम होते हैं । श्रीमद् राजचन्द्र का प्रसिद्ध वचन है, 'कर विचार तो पाम' - विचार करोगे तो पाओगे। किसी बिन्दु पर विचार करोगे, तो यह तय है कि परिणाम भी आएगा। नचिकेता ने सोचा, यज्ञ पूर्ण हो गया। पिता को कैसे कहूँ कि वे जो गायें दान में दे रहे हैं, उससे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होगी ।
नचिकेता ने आखिर साहस करके कह दिया, 'पिताश्री, आप ये जो गायें दान में दे रहे हैं, ये अनुपयोगी हैं। इससे आपको यज्ञ का फल कैसे मिलेगा ? ये मरियल गायें क्यों दान में दे रहे हैं ? इससे तो आपको स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होगी।' पिता दान करते रहे । ग़ौर नहीं किया । नचिकेता ने दूसरी बार उन्हें याद दिलाया। तीसरी बार फिर कहा कि पिताजी, ऐसा करने से यज्ञ अधूरा कहलाएगा। पंडितों के बीच बार-बार कहे गए पुत्र के शब्द पिता को आहत कर गए। फिर भी उन्होंने ख़ुद को संयमित रखते हुए नचिकेता को समझाने का प्रयास किया, कहने लगे, 'सर्वश्रेष्ठ तो तुम भी हो, क्या तुम्हें भी दान कर दूँ !' नचिकेता ने कुछ पल विचार किया होगा। मौन रहकर मूल्यांकन किया होगा । पिता की कीर्ति बढ़ाने के लिए खुद का बलिदान भी करना पड़े, तो यह पुत्र तैयार है । पुत्र तो ऐसे-ऐसे हुए हैं कि पिता से भी आगे निकल गए। पिता के लिए उन्हें कुछ करना पड़ा, तो पीछे नहीं हटे।
ययाति ने सौ साल पूरे करने के बाद अपने पुत्र से कहा कि अभी जीवन जीने की मेरी तृष्णा नहीं मिटी, मैं और जीना चाहता हूँ । मौत ने उससे जीवन माँगा, तो उन्होंने मौत से सौदेबाजी की। कहने लगे, 'मुझे अभी और जीना है, बोलो क्या कीमत है ? '
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