Book Title: Mrutyu Se Mulakat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 192
________________ आत्म-तत्त्व से आत्म-साक्षात्कार हो जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है । मृत्यु ही एक ऐसा तत्त्व है, जो आत्म-तत्त्व के बारे में जानती है। जरा कल्पना करें कि जिस आत्म-तत्त्व को जानने के लिए हम इतनी कठिन साधना किया करते हैं, उस आत्म-तत्त्व को यमदेव आकर एक पल में ही हमसे अलग कर दिया करते हैं। उनके पास वह कला है- ही इज मास्टर पीस । प्रश्न है हम मृत्युदेव से क्यों मुखातिब हो रहे हैं ? क्योंकि यमदेव को ही आत्म-तत्त्व के बारे में भली-भाँति ज्ञान है । हो सकता है कि संसार में कुछ आत्म-योगियों को आत्म-तत्त्व के बारे में बोध हो । वे आत्म - ज्ञानी भी स्वयं आत्म-तत्त्व को फिर भी जान सकते हैं, लेकिन वे इसे दूसरों को नहीं बता सकते । यदि बताने का प्रयास करेंगे, तब भी जितना स्वयं उन्हें ज्ञान है, उसका दो प्रतिशत भी नहीं बता पाएँगे, क्योंकि ज्ञान तो अनन्त है और अनुभव सीमित है । 1 अतीत में मैं कभी आत्म- खोज के लिए निकला था। अनेक बड़े-बड़े संतों- ऋषियों से मिला। उन्होंने अपने अनुभवों को कहने की कोशिश भी की, लेकिन मुझे संतोष नहीं हुआ । ठेठ हिमालय तक गया । हिमालय के ऋषि-मुनियों से मिला । अधिकांशतः मैंने पाया कि लोगों के पास अनुभव का आत्म-ज्ञान नहीं है । सभी खोज में लगे हैं। सभी के पास किताबी ज्ञान है। आत्मा के बारे में बोलना अलग चीज़ है। आत्मा के बारे में अनुभव होना अलग चीज़ है। अनुभव हो भी तो कैसे ? लोगों के भीतर आत्मा की प्यास ही नहीं है । सब ऊपर-ऊपर हैं। सब ऊपर-ऊपर तिर रहे हैं। अंदर पैठने को कोई तैयार नहीं है । आत्म-ज्ञान के लिए जिन शर्तों की ज़रूरत है, उन शर्तों को पूरा करने के लिए कोई तैयार नहीं है । जनक ने अष्टावक्र से आत्म-ज्ञान के बारे में जानना चाहा, तो अष्टावक्र ने सीधा सवाल किया- 'क्या तुम आत्म-ज्ञान को प्राप्त करने के लिए. तैयार हो ?' इसके लिए कुर्बानी देनी पड़ती है। मोह-माया की कुर्बानी । अपने-परायों की कुर्बानी । मेरी तेरी की कुर्बानी । अष्टावक्र के प्रश्न को सुनकर एक बार तो जनक सकपका उठे, पर प्यास गहरी थी; सो कुर्बानी के लिए तैयार हो गए। जनक अष्टावक्र के साथ निकल पड़े। जंगलों में चले गए। राजमहल का मोह छोड़ दिया । परिणाम अद्भुत रहा। अष्टावक्र गीता जैसा महान् शास्त्र प्रकट हुआ। जैसे नचिकेता और यमराज के बीच संवाद हो रहे हैं, वैसे ही जनक और अष्टावक्र के बीच संवाद हुए। न केवल संवाद हुए, बल्कि अनुभव का प्रकाश भी साकार हुआ । अष्टावक्र गीता अध्यात्म-प्रेमियों के लिए एक वरदान की तरह है ठीक वैसे ही जैसे यह कठोपनिषद् । कठोपनिषद् में यमराज ने नचिकेता को आधार बनाकर आत्म-तत्त्व के बारे में हमें सम्बोधित किया है । कठोपनिषद् के शब्दों पर गौर करें तो यमराज कहते हैं - यह Jain Education International 191 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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