Book Title: Mrutyu Se Mulakat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 188
________________ साथ आपकी उपासना मिलकर दोहरे परिणाम देगी। हालत यह हो गई है कि गुरु तो अपने प्रभु की उपासना करता है और शिष्यों को खुद की उपासना की प्रेरणा देता है । ऐसा हुआ, एक सम्राट के यहाँ एक फकीर कुछ माँगने पहुँचा । फकीर ने देखा, सम्राट ऊपर हाथ कर परमात्मा से माँग रहे थे कि हे प्रभु, मेरा खजाना भरा रखना । फकीर खाली हाथ लौटने लगा । सम्राट ने उन्हें बिना कुछ माँगे, जाते देखा तो उन्होंने उसे रोका और पूछा, 'क्या बात है, महात्मन्, आप किस आस में यहाँ आए थे और अब बिना कुछ कहे, लिये, लौट क्यों रहे हैं ? ' फकीर ने कहा, 'मैं एक पाठशाला खोलने के लिए आपसे आर्थिक मदद लेने की इच्छा से आया था, लेकिन मैंने देखा कि आप तो खुद ऊपर वाले से माँग रहे हैं। फिर मैं भी उसी से माँग लूँगा, माध्यम की क्या ज़रूरत है ? वह आपको देगा, तो मुझे भी सीधे ही दे देगा । ' मैं जोधपुर में एक आदमी को जानता हूँ, उनका नाम कमाल बाइंडर है । वे एक बार मेरे पास बैठे धर्म चर्चा कर रहे थे। मैं भी उर्दू या कुरान पढ़ने के लिहाज से उनसे चर्चा कर लिया करता हूँ । उस दिन उन्होंने अपनी पुरानी बात बताई। एक बार उनके पास पाकिस्तान से प्रस्ताव आया कि वहाँ 70 रुपए मासिक मजदूरी मिल सकती है। उन दिनों उन्हें हिन्दुस्तान में तीस रुपए प्रतिमाह मिलते थे । उन्होंने अब्बा से पूछा, उनका कहना था, खुदा तेरा भला करे। उनके मन में सवाल उठा, भारत में मजदूरी कौन दे रहा है, खुदा । पाकिस्तान में भी मजदूरी कौन देगा, खुदा । फिर खुदा यहाँ तो तीस रुपए दे रहा है और वहाँ 70 रुपए दे देगा; क्या भारत का और पाकिस्तान का खुदा जुदा-जुदा है ? हम सब उसकी ही तो रचना हैं, वह तो एक ही है। यहाँ भी उसी का नूर है और वहाँ भी उसका ही जलवा। यह तो हमारी नादानी है कि हमने अपने लिए अलग-अलग मालिक बना लिये हैं, असल में तो मालिक एक ही है । कोई भी धर्म हो, सबकी उपासना का तरीका अलग-अलग हो सकता है लेकिन वह परम सत्ता तो एक ही है हाँ, उसे हमने नाम अलग-अलग दे दिए हैं। इसलिए उसी से माँगें जो मालिक है । जिस भाव से माँगोगे, उसी भाव से वह आपकी झोली भर देगा । 1 रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक खास कहानी का जिक्र किया है। टैगोर कहते हैं मैं जब गाँव में घर-घर भीख माँगने निकला हुआ था, तब उसका स्वर्णरथ एक सुनहरे सपने की तरह दूर दिखाई दिया। मैं ताज्जुब करने लगा कि यह सम्राटों का महिमामय सम्राट कौन है ? मुझे उम्मीद बँधी कि मेरे बुरे दिनों का अंत होने वाला है। मैं बिना माँगे दान की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। जहाँ में खड़ा था, अचानक वहाँ रथ आकर रुका; उसकी नज़र Jain Education International 187 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226