Book Title: Mrutyu Se Mulakat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 167
________________ सारे रास्ते तुम्हारे लिए खुल चुके हैं। तुमने यह समझ लिया है कि आत्मा के द्वारा ही परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए हमें अपने अंतर्हदय में उतरना ही होगा। व्यक्ति की सारी संपदा स्वयं व्यक्ति से ही जुड़ी है। लोग संपदा, सुख-शांति औरों में तलाशना चाहते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि व्यक्ति की सारी संपदा, सुख-शांति अपने-आप से जुड़ी है। तभी तो किसी ने कहा है - 'कस्तूरी कुण्डली बसै, या ढूँढ़े जग माही।' एक आदमी घर की अलमारी में कुछ ढूँढ़ रहा था। पत्नी ने उससे पूछा – 'सौ का नोट रखा तो इसी अलमारी में था या कहीं और?' पति ने कहा - 'यह तो याद नहीं, लेकिन यह सोचकर ढूँढ रहा हूँ कि मेरा नहीं तो किसी और का नोट मिल जाएगा।' यहाँ हम औरों में तलाशते हैं। खोया है खुद का, ढूँढ रहे हैं औरों में। यमराज कहते हैं - व्यक्ति की सारी दौलत, सारी ताक़त उसी में समाहित है। वह इन्हें लोगों में ढूँढता है। तेरा तेरे पास है, अपने मांही टटोला, राई घटे ना तिल बढ़े, हरि बोलो हरि बोल। यानी तुम्हारी संपदा तुम्हारे भीतर ही समाहित है। टटोलोगे तो मिल ही जाएगी। ___आइए, ज़रा समझें कि यमराज किस तरह हमें आत्म-तत्त्व के बारे में बता रहे हैं। यमराज कहते हैं - 'मनुष्य इस आत्म-तत्त्व को सुनकर तथा उसे भली प्रकार ग्रहण करके, उस पर विवेकपूर्ण विचार करके इस सूक्ष्म आत्म-तत्त्व को जानकर इस मोदनीय की उपलब्धि कर अति आनन्दित हो जाता है। मैं तुझ नचिकेता के लिए परमात्मा का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।' कितनी अद्भुत बात है। यमराज कह रहे हैं - हे नचिकेता! मैं तुम्हारे लिए परमात्मा का द्वार खुला देख रहा हूँ। परमात्म-तत्त्व देखना है, तो अंतर्हदय में उतरना होगा। देखिए, आखिर मृत्यु ने अपना रहस्य बता ही दिया कि मैं व्यक्ति के अंतर्हृदय में प्रवेश करके वहाँ विद्यमान प्राण-तत्त्व को हरण कर लेता है। यह जो गूढ़ तत्त्व हैं - आत्म-तत्त्व, मनुष्य के हृदय में ही विराजमान है। यमराज कहते हैं कि हे नचिकेता! अब जबकि मैंने तुझे आत्मा का रहस्य समझा दिया है, इसलिए अब तुम्हारे लिए परमात्मा के द्वार अपने-आप खुल गए हैं। यह जो ऋचा कठोपनिषद् में है, वह दिखने में साधारण लग सकती है लेकिन इसमें आत्म-ज्ञान के सारे चरण छिपे हैं। आत्म-ज्ञान के पाँच चरण कहे जा सकते हैं। मनुष्य इस आत्म-तत्त्व को सुनकर, ग्रहण कर, उस पर विवेकपूर्वक चिंतन कर, उपलब्ध कर और प्रमुदित होकर प्राप्त कर सकता है। तो पहला चरण हुआ, ज्ञानीजनों से ध्यानपूर्वक सुनना। 166 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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