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धर्म चाहता है कुर्बानी
धार्मिक जीवन जीने के दो स्तर हैं। पहला स्तर है - संसार में प्रवेश करके धार्मिक जीवन जीना। दूसरा स्तर है - संन्यास धारण करते हुए धर्म की बारीकियों को जीना । जो लोग संसार में प्रवेश कर धर्म को जीने का प्रयत्न करते हैं, उनके लिए पहला रास्ता है दान और दूसरा है पूजा । संन्यास लेने वालों के लिए दो मार्ग हैं - स्वाध्याय और ध्यान । हर मार्ग के अपने अर्थ हैं । कोई व्यक्ति यदि गृहस्थ जीवन जीता है, तो उसके लिए सीधा और सरल रास्ता है - दान और पूजा । संत - जीवन के लिए स्वाध्याय और ध्यान मुख्य आधारशिला हैं ।
कहते हैं कि गौतमवंशी वाजश्रवा के पुत्र ऋषि उद्दालक ने विश्वजित-यज्ञ किया । यह यज्ञ देवताओं को प्रसन्न कर उनसे किसी फल की चाह से किया जाता है । इसमें अपना सर्वस्व दान करने का विधान होता है । उद्दालक ने अपना सारा धन दान-दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों को दे दिया। यज्ञ का आयोजन तभी सफल माना जाता है, जब पूर्णाहुति के बाद दान-दक्षिणा दी जाए। यज्ञ करना एक तरह से दैवीय शक्तियों की पूजा करना ही होता है । दान अपनी ओर से संगृहीत वस्तुओं का किया जाता है ।
प्रत्येक व्यक्ति में दान की प्रवृत्ति अनिवार्य रूप से रहनी चाहिए। स्वार्थ में उलझा व्यक्ति धार्मिक नहीं हो पाएगा। इसके विपरीत इंसान के काम आने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से धार्मिक होगा। एक दूसरे के काम आने की दृष्टि से ही दान की परंपरा स्थापित हुई है। जब किसी के मन में श्रद्धा का आवेग जन्म लेता है, तो इंसान अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचने लगता है, स्वार्थों को त्यागने लगता है, वह दूसरों के काम आने लगता है। अपने निजी स्वार्थों का त्याग करना ही सच्चा त्याग है। ऐसे में यज्ञ के बाद दान देना उसी त्याग की परंपरा का सम्मान करना है। हर कोई व्यक्ति अर्जन तो ज़िंदगी-भर करता है, लेकिन जीवन में विसर्जन का संस्कार होना हमारी संस्कृति की बुनियादी सीख है ।
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