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हमने कौन-सा अपने माइतों के नाम पर उनके मरने के बाद कुछ किया है। जब हम ही न कर पाए, तो हमारों से तो उमीद ही मत रखना। आपके पास ज़्यादा कुछ पैसा न भी हो, तब भी कम-से-कम प्यासों के लिए एक प्याऊ तो ज़रूर बनवा जाना। किसी अनाथालय में रहने वाले किसी एक अनाथ बच्चे को गोद लेकर उसके भरण-पोषण की व्यवस्था कर जाना। ऐसे किसी बेसहारा बुजुर्ग के लिए कुछ ज़िम्मेदारी उठा लेना, जिसके बच्चे उसे दगा दे गए। क्षेत्र तो सौ हैं, ख़ुद ही तय कर लें कि मुझे किस क्षेत्र में आहुति देनी है। असली यज्ञ तो ऐसे ही होता है। हमें तो जीवन को ही ऐसा बना लेना चाहिए कि हमारा जीवन ही यज्ञ बन जाए। हम प्यासों के लिए सरोवर बन जाएँ, पथहारों के लिए तरुवर बन जाएँ, बाहर से संत हों या न हों, पर आत्मा से संत अवश्य बन जाएँ। कबीर का प्रसिद्ध कथन है :
सांईं इतना दीजिए, जामें कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, ना कोई भूखा जाय॥ हे प्रभु! इतना दीजिए कि हमारा भी भरण-पोषण हो और घर आये मेहमान का भी सत्कार हो।
यज्ञ का आयोजन दैवीय कार्य है। इसलिए यज्ञ करने वाला देवता जैसा ही हुआ। मंदिर जाएँ तो एक बात हमेशा याद रखें कि दर्शन करने के बाद बाहर निकलें तो जरूरतमंद को एक रुपया ही सही, कुछ-न-कुछ ज़रूर दान दीजिए। देने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। हाथ हमेशा देने की मुद्रा में होना चाहिए। व्यक्ति के द्वारा हाथों से दिया गया दान और किया गया श्रेष्ठ कर्म ही व्यक्ति का सबसे बड़ा यज्ञ होता है।
__ एक फ़क़ीर बादशाह अकबर के यहाँ कुछ पाने की आस में पहुँचा। उस समय बादशाह नमाज़ अदा कर रहा था। नमाज़ पढ़कर बादशाह दोनों हाथ उठाकर ख़ुदा से प्रार्थना करने लगा, 'हे सारे जहान के मालिक! तूने मुझे सब कुछ दे रखा है। एक ही ख्वाहिश है, मेरे ख़ज़ाने को भरा रखना।' फ़क़ीर ने यह सुना, तो वहाँ से लौटने लगा। बादशाह ने फ़क़ीर को रवाना होते देखा, तो उसे रोककर पूछा, 'मेरे द्वार से कोई खाली चला जाए, यह मुझे मंजूर नहीं है। बोलो, क्या चाहते हो?' फ़क़ीर बोला, 'मैं समझता था, तू दाता है। लेकिन मैंने अभी-अभी देखा कि तू तो ख़ुद ऊपर वाले से माँग रहा है। जब माँगना ही है, तो मैं तुझसे माँगने की बजाय क्यों न उसी से माँगें जो तेरा ख़ज़ाना भरता है।'
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