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आधुनिक परिदृश्य के अनुकूल है। यह खण्ड अपने आप में एक खण्ड-काव्य हैं। यह पूरा-का-पूरा उद्धत करने योग्य है। कठिनाई यह है कि थोड़े से उद्धरण देना कृति के प्रति न्याय नहीं। जो छूटा हैं बह अपेक्षाकृत विशाल है, महत्त्वपूर्ण है। अस्तु । टेरने कथा-प्रसंग को :
स्वर्णकलश उद्विग्न और उत्तप्त है कि कथानायक ने उसकी उपेक्षा करके मिट्टी के घड़े को आदर क्यों दिया है। इस अपमान का बदला लेने के लिए स्वर्णकलश एक आतंकवादी दल आहुत करता है जो सक्रिय होकर परिवार में त्राहि-त्राहि पचा देता है। इसके क्या कारनामे हैं, किन विपत्तियों में से संठ अपने परिवार की रक्षा स्वयं और सहयोगी प्राकृतिक शक्तियों तथा मनुष्येतर प्राणियों- गजटल और नाग-नागनियों-की सहायता से कर पाता है, मैंशधार में डूबती नाव से किस प्रकार सबकी प्राण-रक्षा होती है, किस प्रकार सेट का क्षमाभाव आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन करता है, इस सबका विवरण उपन्यास से कम रोचक नहीं। कविता का रसास्वाद तो कर ही। ग.म.- पान : * दि. ‘स्वर्णकला और आतंकबाद आज के जीवन के ताजे सन्दर्भ हैं। समाधान आज के प्रसंगों के अनुरूप आधुनिक समाज-व्यवस्था के विश्लेषण द्वारा प्रस्तुत किया गया है। सीधे-सपाट ढंग से नहीं, काव्य की लक्षणा और व्यंजना पद्धति से ।
विचित्र बात यह है कि सामाजिक दायित्व-बोध हमें प्राप्त होता है एक मत्कुण के माध्यम से :
"खेद है कि लोभी पापी मानव पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं। प्रायः अनुचित रूप से सेवकों से सेवा लेते । और वेतन का वितरण भी अनुचित ही। ये अपने को बताते / मनु की सन्तान! महामना मानव ! देने का नाम सुनते ही इनके उदार हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, फिर भी, एकाध बूंद के रूप में जो कुछ दिया जाता / या देना पड़ता वह दुर्भावना के साथ ही।
पन्द्रह