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और नि पानी नहींदुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का
विभाव-परिणमन मात्र है वह। (१e smaj इसी प्रसंग में मृदंग के स्वर भी गंतरित होते हैं:
धाधिन धिन्धा" धाधिन धिन्धा" वेतन-भिन्ना, चेतन-भिन्ना तातिन तिनता. तातिन तिन"ता"
का तन""चिन्ता, का तन चिन्ता ? (पृष्ठ 06! इस खण्ड में साधु की आहार-दान की प्रक्रिया सविवरण उजागर हुई है। भक्तों की भावना, आहार देने या न दे सकने का हर्ष-विषाद, साधु की दृष्टि, धर्मोपदेश का सार और आहार-दान के उपरान्त सेठ का अनमने भाव से घर लौटना, सम्भवतः इसलिए कि सेठ को जीवन का गन्तव्य दिखाई दे गया है, किन्तु वह अभी बन्धनमुक्त नहीं हो सकता :
सन्त समागम की यही तो सार्थकता है संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करने वाला भले ही तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है, किन्तु वह सन्तोषी अवश्य बनता है। सही दिशा का प्रसाद ही
सही दशा का प्रासाद है। (पृष्ठ 3 प्रसंगों का, बात में से बात की उद्भावना का, तत्त्व-चिन्तन के ऊँचे छोरों को देखने-सुनने का, और लौकिक तथा पारलौकिक जिज्ञासाओं एवं अन्वेषणों का एक विचित्र छवि-घर है यह चतुर्थ खण्ड । यहाँ पूजा-उपासना के उपकरण सजीव वार्तालाप में निमग्न हो जाते हैं। मानवीय भावनाएँ, गुण और अवगुण, इनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। यह अद्भुत नाटकीयता, अतिशयता और प्रसंगों के पूर्वापर सम्बन्धों का बिखराव समीक्षक के लिए असुविधाजनक हो सकते हैं, किन्तु काव्य को प्रासंगिक बनाने की दृष्टि से इनकी परिकल्पना साहसिक, सार्थक और
चौदह