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३. जिनवाणी का सार श्री जिनवर सर्वज्ञ प्रभु, परिपूर्ण ज्ञान मय दिव्य ध्वनि खिरती फिर, ज्ञानी गणधर ग्रंथ जिससे निर्मित होता, श्रुत का, द्वादशांग स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का
लीन रहें । विभाग करें ॥
भंडार है ।
सार
है || १ |
सार है ॥ ३ ॥
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पूर्वापर का विरोध होता, किंचित् न जिनवाणी में । वस्तु स्वरूप यथार्थ प्रकाशित करती जग के प्राणी में ॥ निज पर को पहिचानो चेतन, यही मुक्ति का द्वार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का जिनवाणी का सार है ॥२॥ जिनवाणी मां सदा जगाती, ज्ञायक स्वयं महान हो । अपने को क्यों भूल रहे, तुम स्वयं सिद्ध भगवान हो ॥ देखो अपना ध्रुव स्वभाव पर पर्यायों के पार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का द्वादशांग का सार यही मैं आतम ही परमातम शरीरादि सब पर यह न्यारा, पूर्ण पर यह न्यारा, पूर्ण स्वयं शुद्धातम ध्रुव चैतन्य स्वभाव सदा ही, अविनाशी अविकार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ॥ बाह्य द्रव्य श्रुत जिनवाणी, कहलाती है व्यवहार से । स्वयं सुबुद्धि है जिनवाणी निश्चय के निरधार से ॥ मुक्त सदा त्रय कुज्ञानों से जहां न कर्म विकार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का जिनवाणी का सार है ॥ ५ ॥ कण्ठ कमल आसन पर शोभित, बुद्धि प्रकाशित रहती है । पावन ज्ञानमयी श्रुत गंगा, सदा हृदय में बहती है ॥ शुद्ध भाव श्रुत मय जिनवाणी, मुक्ति का आधार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का
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सार है ॥ ६ ॥
हे मां तव सुत कुन्द कुन्द, गुरू तारण तरण महान हैं । ज्ञानी जन निज आत्म ध्यान धर पाते पद निर्वाण हैं | आश्रय लो श्रुत ज्ञान भाव का हो जाओ भव पार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का जड़ चेतन दोनों हैं न्यारे, यह जिनवर तन में रहता भी निज आतम, ज्ञान मयी तत्व सार तो इतना ही है, अन्य कथन स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का
सार है ॥ ७ ॥
संदेश है ।
परमेश है ॥ विस्तार है ।
सार है ॥ ८ ॥
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