Book Title: Mandir Vidhi
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 71
________________ ७१ सार सिद्धांत - स्वभाव के आश्रय से लोभ कषाय का अभाव होना, निर्लोभता, शुचिता, पवित्रता का प्रगट होना उत्तम शौच धर्म है। अन्मय अबलबलि विषय विनन्द विली, सहयार उवन पय मुक्ति मिलं । संजम सुइ जयो जय जय रमनं जाता उववन्नु सु मुक्ति जयं ॥ उव समषिम रमन सु ममल पयं ॥ ८ ॥ 7 ॥ उव उवन ॥ (अन्मोय अबलबलि) अबलबली स्वभाव की अनुमोदना करने से (विषय विनन्द विली) विषय जनित दुःख विला जाता है (उवन पय) निज पद की अनुभूति को (सहयार) सहकार करने रूप सम्यक्चारित्र से ( मुक्ति मिलं) मुक्ति की प्राप्ति होती है (सुइ जयो जयो) शुद्धात्म स्वरूप की जय हो जय हो (जय रमनं) इसी जयवंत स्वरूप में रमण करना (संजम) उत्तम संयम धर्म है (जाता उववन्नु सु) अपने त्रिकाली ज्ञाता स्वभाव का उत्पन्न होना ही (मुक्ति जयं) मुक्ति को प्राप्त करना है। सार सिद्धांत - स्वभाव के आश्रय से हिंसा पाप का अभाव होना, पाँच स्थावर, एक त्रस इस प्रकार षट्काय के जीवों की रक्षा करना तथा पाँच इंद्रियों और मन को वश में करना उत्तम संयम धर्म है। तप तत्काल उवन सुइ उवनं, उव उवन न्यान सुइ विषय विलयं । उववन्न परम पय परम उवन जय, तं कम्मु विलय सुई मुक्ति पयं ॥ उव सम षिम रमन सु ममल पयं ।। ९ ।। ॥ उव उवन ॥ [रागादि भावों का त्याग करके ] (तत्काल उवन) इसी समय स्वानुभव में ठहरना (सुइ उवनं) शुद्धात्म स्वरूप का उदित हो जाना (तप) उत्तम तप धर्म है (उव उवन न्यान) परमात्म सत्ता स्वरूप के स्वानुभव सम्पन्न ज्ञान के बल से (सुइ विषय विलयं) विषय विकार अथवा पर ज्ञेय सहज ही विला जायेंगे (परम उवन जय) परमात्म स्वरूप का अनुभव जयवंत हो, इससे ही (उववन्न परम पय) परम पद उत्पन्न होता है, और (तं कम्मु विलय) कर्मों की निर्जरा होने पर (सुइ मुक्ति पयं) सहज ही मुक्ति पद की प्राप्ति होती है। सार सिद्धांत - स्वभाव के आश्रय पूर्वक इच्छाओं का निरोध करना, १२ प्रकार के तप का पालन करना और समस्त रागादि भावों का परिहार कर स्वरूप में लीन रहना उत्तम तप है । त्यागं तिक्त तिक्त पर पर्जय, भय सत्य संक विलयंतु सुयं । दानं तं नन्त नन्त जिन रमनं त्याग न्यान सुइ सिद्धि जयं ॥ उव समषिम रमन सु ममल पयं ॥ १० ॥ ॥ उव उवन ॥ (पर पर्जय) पर पर्याय का ( तिक्त तिक्त) देखना मानना छूट जाये (त्यागं) यही उत्तम त्याग धर्म है, इससे (भय सल्य संक विलयंतु सुयं) भय, शल्य, शंकायें स्वयं ही विला जाती हैं (तं नन्त नन्त) अपने अनंत चतुष्टयमयी (जिन रमनं) जिन स्वभाव में उपयोग लगाना अर्थात् वीतराग स्वभाव में रमण करना (दानं) दान है, ऐसे (त्याग न्यान) ज्ञान पूर्वक त्याग से ( सुइ सिद्धि जयं) सहज ही सिद्धि मुक्ति की प्राप्ति होती है। सार सिद्धांत - स्वभाव के आश्रय से चोरी पाप का त्याग और अंतर में रागादि भावों का त्याग तथा व्यवहार में चार प्रकार के दान देना यही उत्तम त्याग धर्म है ।

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