Book Title: Mandir Vidhi
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ ७३ जाता है। जिसका अर्थ है धर्म और धर्म के लक्षणों में आचरण का स्वरूप दर्शन कराने वाली फूलना। आचार्य कहते हैं कि गुणों में आचरण करना ही धर्म का आचरण है। ज्ञानमयी पद में आचरण करना अनंत गुणों के निधान आत्म स्वरूप में चर्या का प्रतीक है। रागादि भावों का परिहार कर तिअर्थमयी आत्म पद में निमग्न रहना सच्चा तपश्चरण है। परमात्म स्वरूप के आश्रय से निर्विकल्प स्वानुभूति, शून्य स्वभाव में रमण करने से रागादि भावों की विषमता और संसार के परिभ्रमण का अंत हो जाता है। ज्ञानी जानता है कि जगत पूज्य अरिहंत सिद्ध भगवंतों के समान परम शुद्ध निश्चय से मैं परमात्म स्वरूप शुद्धात्मा हूँ । इसी महिमामय स्वभाव का अनुभव करते हुए आत्मार्थी साधक सम्यग्दर्शन स्वरूप उत्तम संज्ञा को प्राप्त होता है। पुनश्च, इस उत्तम संज्ञा के साथ क्रोधादि विकारों के अभाव होने पर क्षमा आदि गुण प्रगट होते है इन्हें दशलक्षण धर्म कहा जाता है। दशलक्षण धर्म के नाम इस प्रकार हैं - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य। धर्म को चार प्रकार से निरूपित किया गया है - १. वस्तु का स्वभाव धर्म है। २. उत्तम क्षमा आदि दशलक्षण धर्म है। ३. रत्नत्रय धर्म है। ४. जीवों की रक्षा रूप दया अहिंसा धर्म है। धर्म अनेक नहीं होते, धर्म तो एक ही होता है। रागादि विभाव रहित रत्नत्रयमयी चेतना लक्षण स्वरूप वस्तु स्वभाव एक अखंड धर्म है। इसके आश्रय पूर्वक क्रोधादि विकारों का अभाव होता है और उत्तम क्षमा आदि अनेक गुण प्रगट होते हैं। इन गुणों की भी धर्म संज्ञा है। दशलक्षण धर्म इसी के अंतर्गत आता है। दशलक्षण धर्म का स्वरूप १. उत्तम क्षमा धर्म - व्यवहार अपेक्षा - अपने प्रति अपराध करने वालों का शीघ्र ही प्रतिकार करने की सामर्थ्य होते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों को क्षमा करता है वह उत्तम क्षमा का धारी विज्ञपुरुष है। अथवा क्रोध के निमित्त उपस्थित होने पर भी जो क्रोध नहीं करता यही उत्तम क्षमा धर्म है। निश्चय अपेक्षा- क्रोधादि समस्त आस्रव भाव हैं इनका त्याग कर ज्ञानमयी अमृतरस से परिपूर्ण ममल पद में ठहरना उत्तम क्षमा धर्म है। २. उत्तम मार्दव धर्मव्यवहार अपेक्षा-जो मनस्वी पुरुष कुल, जाति, रूप, तप, बुद्धि, शास्त्र और शील आदि में रंचमात्र भी घमंड अथवा अहंकार नहीं करता है उसको उत्तम मार्दव धर्म होता है। उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो मद् नहीं करता वह मार्दव धर्म रत्न का धारी है। निश्चय अपेक्षा- विभाव परिणामों की गहलता से परे होकर परम दैदीप्यमान चैतन्य मूर्ति जिन स्वभाव के प्रति समर्पित होना, परोन्मुखी दृष्टि का त्याग करना उत्तम मार्दव धर्म है। ३. उत्तम आर्जव धर्मव्यवहार अपेक्षा - जो विचार हृदय में स्थित है, वही वचन में रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीर से भी तदनुसार ही कार्य किया जाता है यह आर्जव धर्म है। इसके विपरीत दूसरों को धोखा देना अधर्म है। योगों का वक्र न होना आर्जव धर्म है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147