Book Title: Mandir Vidhi
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 86
________________ ८६ 'अर्ह' यह शब्द 'ब्रह्म' अर्थात् अरिहंत परमेष्ठी का वाचक, सिद्ध चक्र का सद्बीज है, सब प्रकार से मैं उसे प्रणाम करता हूँ॥५॥ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से रहित तथा मोक्ष लक्ष्मी में निवास करने वाले सम्यक्त्वादि गुणों सहित ऐसे सिद्ध चक्र अर्थात् अनन्त सिद्ध भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ॥६॥ हे जिनेश्वर ! आपके स्तवन करने से शाकिनी, भूत और सर्प आदि से उत्पन्न होने वाले विध्नों के समूह नाश को प्राप्त हो जाते हैं और विष भी निर्विष हो जाता है अर्थात् जहर भी उतर जाता है।७॥ इन्द्र ध्वज पूजा का अर्थतीन लोक के ईश्वर त्रिलोकीनाथ, स्याद्वाद विद्या के नायक, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य के धारी, केवलज्ञान लक्ष्मी के स्वामी श्रीमद् जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके मेरे द्वारा यह जिनेन्द्र स्तवन की विधि प्रारम्भ की जा रही है । हे नाथ ! आपका स्तवन निर्दोष है और पुण्य प्राप्ति का अद्वितीय कारण है ॥ १॥ तीन लोक के प्रधान गुरू तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान आपका मंगल हो (अर्थात् आप मंगल स्वरूप हैं। आगे भी ऐसा ही अर्थ समझना) आत्मीक स्वभाव की महिमा के उदय अर्थात् केवलज्ञान के उदय में जो भले प्रकार स्थित हैं, ऐसे वीतराग भगवान आपका मंगल हो। स्वाभाविक प्रकाश अर्थात् केवलज्ञान से वृद्धि को प्राप्त और केवलदर्शन से युक्त भगवान के लिए मंगल हो । स्वच्छ सुंदर अलौकिक समवशरण आदि वैभव से युक्त भगवान आपका मंगल हो॥२॥ उछलते हुए निर्मल केवलज्ञान रूपी अमृत के प्रवाह वाले भगवान आपका मंगल हो। स्वभाव और परभाव का भेदज्ञान द्वारा बोध कराने वाले भगवान आपका मंगल हो। तीन लोक के समस्त पदार्थों का त्रिकालवर्ती ज्ञान होने से विस्तार को प्राप्त हुए ऐसे जिनेन्द्र भगवान का मंगल हो। तीन काल में जिनका यश विस्तृत हो रहा है ऐसे भगवान का मंगल हो॥३॥अरिहंत भगवान पुराण पुरुषोत्तम पावन हैं। उनमें निश्चय ही संपूर्ण गुण प्रकट हो गये हैं, किसी भी वस्तु अर्थात् गुण की कमी नहीं है। ऐसे प्रकाशित विमल केवलज्ञान रूपी अग्नि में एकाग्र मन से मैं समस्त पुण्य को होम करता हूँ॥ ४ ॥ आत्म यज्ञ में होम करने के लिये शुद्ध द्रव्य यथानुरूप दिगम्बर अवस्था में है। भाव की अधिक शुद्धि पाने का इच्छुक मैं ध्यान आदि अनेक साधनों का सहारा लेकर भूतार्थ पुरुष के यज्ञ को अर्थात् आत्म यज्ञ को करता हूँ॥५॥ शास्त्र पूजा गाथा का अर्थसर्व संपत्ति और सुख की कारण, कर्मों का नाश करने वाली, संसार सागर से तारने के लिये नौका के समान है, ऐसी जिनवाणी को नमस्कार है। जो सत्य का प्रकाश करने वाली स्वर्ग और मोक्ष का संगम कराने वाली है॥ १॥ जिसमें ६३ शलाका पुरुषों के भेदों का कथन हो (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण,९ प्रतिनारायण,९ बलभद्र) सिद्ध पुरुषों की महिमा व पुराण पुरुषों के ध्यान तप आदि ग्रहण करने का वर्णन हो। निश्चय व्यवहार चारित्र के पालन और उसके फल आदि का कथन हो। इस प्रकार के वैराग्य प्रधान परिणामों का वर्णन करने वाला प्रथमानुयोग है ॥२॥ लोक की आधार शिला अर्थात् तीन लोक और उनको घेरे हुए घन वातवलय, घनोदधि वातवलय, तनु वातवलय का स्वरूप जिसमें उपदिष्ट किया हो, दस प्रकार के प्रमाण का कथन तथा द्वीप, समुद्र और जीव के परिणाम आदि का जिनेन्द्र परमात्मा ने वर्णन किया है उसे करणानुयोग कहते हैं ऐसा ग्रहण करो अर्थात् जानो॥३॥ निश्चय - व्यवहार रूपचारित्र का पालन और उनका फल, अनेक प्रकार क्रिया रूप आचरण, उत्कृष्ट ऋद्धि आदि सहित जिसमें उपसर्ग को सहन करने, उपसर्ग विजयी होने का वर्णन किया हो ऐसा चरणानुयोग है॥४॥ मोक्ष के परिणाम अर्थात् शुद्ध भाव मोक्ष प्राप्त कराने वाले हैं, मोक्ष की क्रिया अर्थात् शुद्ध स्वभाव में लीनता रूप शुद्ध परिणति मोक्ष की कारण है, ऐसा जिसमें शुद्ध वर्णन हो तथा हेय अर्थात् छोड़ने योग्य और उपादेय अर्थात् हृदय में धारण करने योग्य क्या है, इसका विवेचन किया गया हो वह द्रव्यानुयोग कहा गया है॥५॥

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