Book Title: Mandir Vidhi
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 99
________________ ९९ वचन, काय एक रूप हो जायें, नहीं तो मन कहूँ को चले, वचन कछु कहे, काया जाकी स्थिर न होय, ताको एक सूत्र न होय। धन्य हैं- धन्य हैं श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्यजी महाराज जिनके मन, वचन, काय, उत्पन्न, हित, शाह, नो, भाव, द्रव्य यह नौ सूत्र सुधरे तथा दसवें आत्म सूत्र अर्थात् आत्मज्ञान की प्राप्ति कर चौदह सिध्दान्त ग्रन्थों की रचना करी ॥जयन् जय बोलिये जय नमोऽस्तु । ॥ श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य महाराज की-जय ॥ : गाथा : सूत्रं जं जिन उत्तं, तं सूत्रं सुद्ध भाव संकलियं । असूत्रं नहु पिच्छदि, सूत्रं ससरूव सुद्धमप्पाणं ॥ (श्री ज्ञानसमुच्चयसार गाथा - ५६४) ३. सिद्धान्त नाम काहे सों कहिये - जामें पूर्वापर विरोध रहित सिद्धान्त रूप चर्चा हो, सप्त तत्व,नव पदार्थ, छह द्रव्य,पंचास्तिकाय ऐसे सत्ताईस तत्वों का यथार्थ निर्णय किया होय तथा आत्मोपलब्धि की वार्ता चले, ताको नाम सिद्धान्त ग्रन्थ कहिये। आगे प्रथमानुयोग जामें २४ तीर्थंकर,१२ चक्रवर्ती,९ नारायण,९ प्रतिनारायण,९ बलभद्र, ऐसे ६३शलाका के महापुरुषों की कथा का वर्णन होय ताको नाम प्रथमानुयोग ग्रन्थ कहिये। न जीव को आदि है न जीव को अंत है। चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते अनंत काल हो गया परन्तु अपने आदि अन्त की खबर नहीं करी । आदि कब जानिये जब यह जीव नि:शंकितादि गुण सहित सम्यक्त्व को प्राप्त हो और अंत कब जानिये,जब मोहनीय कर्म को नाशकर तेरह प्रकार का चारित्र धारण करे, बाईस परीषह जीतकर, पंच चेल, चौबीस प्रकार परिग्रह त्याग, अट्ठाईस मूलगुण धार, चार घातिया कर्मों की निर्जरा कर, केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्धस्थान को प्राप्त हो, आवागमन कर रहित हो, तब अंत जानिये। धन्य है उन आचार्यों को जिनने आदि अन्त की महिमा कही। यथा नाम तथा गुण, गुण शोभित नाम, नाम शोभित गुण । धन्य हैं वे भगवान जिनके नाम भी वन्दनीक हैं और गुण भी वन्दनीक हैं, जिनके नाम लिये अर्थ अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होय है। दोहा : जयमाल नाम लेत पातक कटें, विघन विनासे जांय । तीन लोक जिन नाम की, महिमा वरणी न जाय ॥ १॥ गुण अनंतमय परमपद, श्री जिनवर भगवान । ज्ञेय लक्ष है ज्ञान में, अचल महा शिवथान ॥ २ ॥ अगम हती गुरू गम बिना, गुरूगम दई लखाय । लक्ष कोस की गैल है,पल में पहुँचे जांय ॥ ३ ॥ विघन विनाशन भय हरन, भयभंजन गुरूतार | तिनके नाम जो लेत ही, संकट कटत अपार ॥ ४ ॥ कठिन काल विकराल में, मिथ्या मत रहो छाय । सम्यक् भाव उद्योत कर, शिवमग दियो बताय ॥ ५ ॥ परम्परा यह धर्म है, केवल भाषित सोय । ताकी नय वाणी कथित, मिथ्या मत को खोय ॥ ६ ॥

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