Book Title: Mandir Vidhi
Author(s): Basant Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 106
________________ काऊण णमुक्कार आदि........ गाथाओं का अर्थ जिनवर वृषभ ऐसे जो प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा अंतिम तीर्थकर श्री वर्द्धमान हैं, उन्हें नमस्कार करके दर्शन अर्थात् मत का जो मार्ग है उसे यथानुक्रम से संक्षेप में कहूंगा। अरिहंत परमेष्ठी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निर्मोह, वीतरागी हैं, वे भगवान तीनों लोकों के भव्य जीवों के द्वारा वंदनीय हैं। जिनका चारित्र दर्शन ज्ञान से शुद्ध निर्मल है, उनकी स्वपरा अर्थात् अपनी और पर की (गुरू और शिष्य की अपेक्षा) चलती हुई देह है वह जिन मार्ग में "जंगम प्रतिमा" है अथवा स्व-परा अर्थात् आत्मा से भिन्न है देह, वह कैसी है ? निर्ग्रथ वीतराग है, जिन मार्ग में ऐसी 'प्रतिमा' कही गई है । १०६ मनुष्य भव में पंचेन्द्रिय नामक चौदहवें जीवस्थान अर्थात् जीवसमास, उसमें इतने गुणों के समूह से युक्त तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त अरिहंत होते हैं। जिन्होंने पर द्रव्य को छोडकर द्रव्य, भाव, नो कर्मों की निर्जरा कर ज्ञानमयी आत्मा को प्राप्त कर लिया है ऐसे देव को हमारा नमस्कार हो, नमस्कार हो । जिनबिम्ब कैसा है ? ज्ञानमयी है, संयम से शुद्ध है, अतिशय वीतराग है, जो शिक्षा और दीक्षा देता है, कर्म के क्षय का कारण और शुद्ध है। जिनमें इतनी विशेषतायें हों ऐसे वीतरागी आचार्य परमेष्ठी ही सच्चे जिनबिम्ब होते हैं। ममल स्वभाव की रुचि पूर्वक स्वभाव का संसर्ग करने से कर्म क्षय हो जाते हैं। ज्ञान - विज्ञान ही तीन लोक में सार है इसी के बल से ज्ञानी संसार से तिरते और मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अष्ट मूलगुण, बारह व्रत, बारह तप, समता भाव, ग्यारह प्रतिमायें, चार दान, पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन नहीं करना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की साधना यह श्रावक की त्रेपन क्रियाएं कही गई हैं। आरती क्यों की जाती है ? जब मंदिर विधि करने से भावों में विशुद्धता आती है, शुद्धता की अनुभूति होती है तब हृदय भाव विभोर हो जाता है, इन्हीं शुभभावों सहित ज्ञान की प्रकाशक जिनवाणी की भक्ति पूर्वक ज्ञान ज्योति से आरती प्रज्ज्वलित कर आरती करते हैं जिससे परिणामों में और अधिक विशुद्धता आती है। दूसरी बात यह है कि तारण समाज में एक चेल और पाँच चेल की आरती बनाई जाती है। आरती ज्योति रूप है इस ज्योति स्वरूप को 'दीप्ति' कहा गया है। दीप्ति का अर्थ होता है - ज्ञान । इस प्रकार एक चेल की आरती केवलज्ञान की प्रतीक है और पाँच चेल की आरती पाँच ज्ञान की प्रतीक है, जो सत्ता अपेक्षा प्रत्येक जीव के पास हैं। ऐसे सम्यग्ज्ञान की दीप्ति अर्थात् ज्योति मेरे अंतर में प्रकाशित हो इसी अभिप्राय से आरती की जाती है। प्रसाद - प्रभावना प्रभावना हेतु आये हुए प्रसाद की जय बोलने के साथ ही यदि पात्रभावना हो, व्रत उद्यापन हो या अन्य संस्थाओं, तीर्थक्षेत्रों, पत्र पत्रिकाओं के लिये दान दिया गया हो या चैत्यालय आदि के लिये उपकरण, ग्रंथ आदि आये हों तो व्रत भंडार के साथ सबकी सूचना देवें और प्रभावना करें । (प्रसाद वितरण के समय माताओं बहनों को भक्ति भाव पूर्वक भजन पढ़ना चाहिये ) प्रसाद वितरण का क्या महत्त्व है ? प्रसाद दान की प्रभावना स्वरूप वितरण किया जाता है। किसी को चढ़ाया नहीं जाता या चढ़ाकर नहीं बांटा जाता । प्रसाद प्रभावना स्वरूप बांटने से भावों में निर्मलता आती है और पुण्य की वृद्धि होती है। विशेष प्रसाद प्रभावना के पश्चात् तत्त्वमंगल पढ़ना चाहिये तत्पश्चात् जिनवाणी स्तुति पढ़कर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर नौ बार णमोकार मंत्र का स्मरण करके पंचांग अथवा अष्टांग नमस्कार पूर्वक विनय करना चाहिये । - —

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