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श्री दशलक्षण धर्म आराधन
सोरठा पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें । धरिये क्षमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥
चौपाई मिश्रित गीता छंद उत्तम क्षमा गहो रे भाई, इह भव जस पर भव सुखदाई । गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो । कहि है अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करें । घरते निकारें तन विदारै, बैर जो न तहाँ धरै ॥ जे करम पूरव किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अति क्रोध अगनि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सीयरा || १ ॥
मान महा विषरूप, करहिं नीच गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्राणी सदा ॥ उत्तम मार्दव गुन मन माना, मान करन को कौन ठिकाना । वस्यो निगोद माहिं से आया, दमरी रूकन भाग बिकाया ।। रूकन बिकाया भाग वशत,देव इक इन्द्री भया । उत्तम मुआ चाण्डाल हुआ, भूप कीड़ों में गया | जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जलबुदबुदा । करि विनय बहुगुण बड़े जन की, ज्ञान का पावे उदा ॥ २ ॥
कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसे ।
सरल सुभावी होय , ताके घर बहु सम्पदा ॥ उत्तम आर्जव नीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुःखदानी । मन में होय सो वचन उचरिये,वचन होय सो तनसौं करिये ।। करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निर्मल आरसी । मुख करै जैसा लखे तैसा, कपट प्रीति अंगारसी ।। नहिं लहै लछमी अधिक छल करि करम बंध विशेषता । भय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ॥ ३ ॥
कठिन वचन मत बोल, परनिन्दा अरू झूठ तज ।
सांच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ॥ उत्तम सत्य वरत पालीजै, पर विश्वासघात नहिं कीजै । साँचे झूठे मानुष देखे, आपन पूत स्वपास न पेखे ॥ पेखे तिहायत पुरूष सांचे को, दरब सब दीजिये । मुनिराज श्रावक की प्रतिष्ठा, सांच गुन लख लीजिये ||