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महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ “हे तात | गुरु और देव के समान अपने ज्येष्ठ भ्राता को हम जीवन मे रहित नही होने देगे। उचित यही है कि आप लोग मेरे ही जीवन का अन्त कर दे।"
एक विकट समस्या उत्पन्न हो गई। सभी भाइयो मे शेप लोगो की जीवन-रक्षा के लिए अपने-अपने प्राणो का अन्त कर देने की होड-सी लग गई । तब धन्य सार्थवाह ने वस्तुस्थिति पर गहन विचार करके कहा
"प्रिय पुत्रो । ऐसे विकट सकट के समय पर क्या किया जाय और क्या न किया जाय यह मुझे सूझता नहीं। इस समस्या का अब तो एक ही समाधान दिखाई देता है। यह तुम्हारी वहिन मृत्यु को प्राप्त हो ही चुकी है। अत हमे अपनी जीवन-रक्षा के लिए इमी के शरीर का आहार कर लेना चाहिए।"
घोर दुःख के साथ पिता ने यह बात कही थी और पुत्रो ने स्वीकार की थी । अन्य कोई मार्ग था भी तो नही ... ।
पिता-पुत्र घर लौटे । स्वजनो से मिले । मृत सुसुमा का लौकिक मृतकृत्य किया गया । धीरे-धीरे शोक समाप्त हुआ ।
उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर मे पधारे और गुणशील चैत्य मे विराजे । उनके दर्शन करने तथा उपदेश सुनने के लिए नगर के सभी जन गए । धन्य सार्थवाह भी गया । भगवान का धर्मोपदेश सुनकर उसे वैराग्य हुआ और अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने पद पर आसीन करके वह दीक्षित हो गया।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उसने ग्यारह अंगो का क्रमश अध्ययन किया। वहत समय तक संयम का पालन करने के बाद सलेखना कर वह सौधर्म देवलोक मे उत्पन्न हुआ। वहाँ से चल करके वह महाविदेह क्षेत्र मे चारित्र धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा।
चिलात चोर विपयो मे आसक्त था । उसका दुष्परिणाम उसे भोगना पडा। साधु को चाहिए कि वह धन्य सार्थवाह के समान अनासक्त होकर केवल मोक्ष प्राप्ति के हेतु ही आहार ग्रहण करे ।
-~-ज्ञाताधर्म कथा