Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ मै हूँ, और मेरी आत्मा हे ___ "सत्य कटु प्रतीत हुआ क्या, राजन् । क्षमा करिए। मेरा आशय आपको दुखी करने का नही है । किन्तु सत्य तो सत्य ही है, भला उसका मैं क्या करूँ ?"-योगी पूर्ण स्वस्थता से बोला। “यह सत्य है ? कैसे सत्य है ? क्या मैं अनाथ हूँ ? इतनी अतुल शक्ति और सम्पत्ति का एकछत्र स्वामी, मैं अनाथ कैसे हूँ ? क्या तुम पहेलियाँ वुझा रहे हो?" ___“नही, राजन् । हल निकाल रहा हूँ। आप जिस शक्ति और सम्पत्ति की बात कर रहे है, जिस ऐश्वर्य के आप स्वामी है-वह सारा ऐश्वर्य और शक्ति क्या आपकी रक्षा कर सकेगी? क्या आपको व्याधि घेर नही लेगी? क्या वृद्धावस्था आपके ऐश्वर्य, आपकी शक्ति और सम्पत्ति को एक किनारे रखकर आपके शरीर को जीर्ण नही कर देगी? क्या एक दिन काल आपको अपना ग्रास नही बना लेगा? आप स्वयं को अनाथो का नाथ मानते है । किन्तु उस समय आपका नाथ कौन होगा ?" अव श्रोणिक की समझ मे आया कि वह अद्भुत योगी क्या कहना चाहता था। किन्तु वह कोई समुचित उत्तर खोजकर कुछ कहे उससे पूर्व ही योगी कहने लगा “राजन् । आप उदार है । महान् है । आपने मुझे आश्रय देना चाहा, यह आपकी पहली कृपा है । मैं उपकृत हुआ । किन्तु, आपके समान नही, फिर भी यह सारा वैभव तो वहुत कुछ मेरे पास भी था। मुझे भी कोई कमी तो नही थी । धन भी था । इष्ट-मित्र, वन्धु-बान्धव भी थे। राजन् । मैं कौशाम्बी का निवासी था । धन्य श्रेष्ठि मेरे पिता थे । सुन्दरी पत्नी भी थी। सभी कुछ था।" "फिर क्या हुआ ?"-राजा ने जिज्ञासा प्रदर्शित करते हुए पूछा । “एक दिन मेरे नेत्रो मे पीडा हुई। उपचार का कोई साधन ऐस नहीं जिसका प्रयोग न किया गया हो। दूर-दूर से वैद्य आए । मन्त्र-तन्त को भी आजमाया गया । किन्तु मेरी पीडा शान्त नही हुई । मैं छटपटाता रहा । मेरी वेदना को देखकर मेरे सभी प्रियजन दुखी थे। किन्तु स निरुपाय थे । किसी की कोई शक्ति या युक्ति काम नहीं आई। सम्पत्ति सडती रही। सहानुभूति व्यर्थ रही। सेवा तो सभी करते थे, किन्तु का निवारण किसी के वश का नहीं था। राजन् । एक शब्द मे ही स

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316