Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 297
________________ १०६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ दर्शन ओर कल्याणी वाणी के श्रवण से अनेको भूले-भटके लोग सन्मार्ग पर आते और अपने भाग्य को सराहते थे । चित्त भी आचार्य केशी का प्रवचन सुनने गया । आचार्य की वाणी सुनकर वह तो इतना प्रभावित ओर मुग्ध हुआ कि उसने उसी समय श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर लिए और जव तक श्रावस्ती में रहा, प्रतिदिन आचार्य का प्रवचन सुनता रहा । लौटने का समय जब हुआ तो उसने आचार्य से सविनय प्रार्थना की“भते । श्वेताम्विका के नागरिकों पर कृपा कीजिए । एक वार उधर भी पधारिए ।" आचार्य मौन रहे । उन्होने कोई उत्तर नही दिया । चित्त ने दूसरी वार प्रार्थना की। आचार्य फिर भी मौन रहे। तीसरी वार प्रार्थना की, फिर भी आचार्य मौन रहे । आचार्य के मौन का कारण चतुर चित्त मंत्री समझ गया । उसने जान लिया कि उसका राजा परदेशी मूर्ख है, अधर्मी है, स्वार्थी है । शरीर के सुख के अतिरिक्त वह और कुछ जानता ही नही इसीलिए आचार्य मोन है । वे नही चाहते कि धर्म और सघ की कोई अवज्ञा हो । स्वय वे तो अभय हे । यह समझकर चित्त ने पुन कहा “भते ' आप धर्म की सेवा और प्रभावना हेतु खेताम्विका अवश्य पधारे । कोई अन्यथा विचार न करें ।" विचरते-विचरते आचार्य केशी खेताम्विका पहुँचे । नगरी से बाहर मृगवन मे वे विराजे । नागरिक हर्ष से विभोर हो गए । प्रात काल होते ही उन्हे एक ही कार्य सूझता था । अब - मृगवन मे जाकर आचार्य की मधुर वाणी का श्रवण कर अपने जीवन को धन्य करना । चतुर चित्त मत्री चाहता था कि किसी प्रकार राजा को आचार्य के पास ले जाए । बस, उसके बाद तो आचार्य के व्यक्तित्व का प्रभाव ही ऐसा पड़ेगा कि उसे सीधा मार्ग दिखाई देने लगेगा । अस्तु, एक दिन मत्री ने राजा से कहा “राजन् । कुछ नए अश्व खरीदे गए हैं। परीक्षा करके देखना चाहिए ।" राजा तुरन्त प्रस्तुत हो गया । अश्वों पर सवार होकर वे वन की जोर चल पडे ।

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