Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 315
________________ १२४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “तव तो भगवन् । यदि मैं कामभोगो से मुक्त न हो सका तो मरकर सातवे नरक मे ही जाऊंगा ?" भगवान सब जानते थे। वे कोणिक के हृदय में व्याप्त अहकार को भी जानते थे । उन्होने शान्त स्वर मे, स्पष्ट कथन किया "तुम छठे नरक मे जाओगे, कोणिक ।” । "क्या भते । अभी तो आपने कहा कि चक्रवर्ती कामभोगो मे आसक्त रहकर सातवे नरक मे जाते है। तब मैं छठे नरक मे क्यो जाऊंगा?" "इसलिए कोणिक । कि तू चक्रवर्ती नहीं है।" कोणिक अधीर हो गया, बोला • भते । मेरे पास इतना विपुल वैभव है, इतनी विशाल सेना है, में इतने बडे साम्राज्य का अधिपति हूँ। तब मै नक्रवर्ती क्यो नही बन मकता ?" भगवान ने दयापूर्ण, कोमत वचन कहे "कोणिरु | अहकार ठोक नही । लालसा अच्छी नहीं। जो हे उसमे मन्तोष मानना चाहिए। तुम्हारे पास उतने रत्न ओर निधि नहीं है जितो एक चक्रवर्ती के पाम होने चाहिए । अत. तुम उस पद को प्राप्त नहीं कर सकते । व्यर्थ में भटकना नहीं चाहिए।" किन्तु कोणिक माना नहीं । कामना उसके कलेजे मे कुंडती मारे बैठी थी। विम रत्न बना-बनाकर उसने अपना खजाना भर लिया। आर फिर विजेता बनने के लिए तमिना गुहा मे प्रविष्ट होने तगा। गुहा प्रतिपालक देव ने निषेध किया नोणित चक्रवर्ती बारह हो होते है, और वे हो चुके है। आप चश्वर्ती नहीं है । कृपया अनधिकार प्रवेश न कर । मा करने पर आपका समगल होगा।" कोणिक नहीं माना। उसने अनधिकार प्रवेश करना ही चाहा। परिणामम्बन्प देव के प्रहार ने मृत्यु प्राप्त कर वहठे नरक में उन --

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