Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 313
________________ १२२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं जयघोप नगरी में आया । घूमता हुआ वह विजयघोप की यज्ञशाला तक जा पहुंचा। वहाँ उपस्थित अनेक ब्राह्मणो ने उसके श्रमण बेश को देखकर उसकी हँसी उडाई, व्यग किए और ब्राह्मणत्व से सम्बन्धित क्रिया-कर्म का बढ-चढकर बखान करने लगे। जयघोप शान्त रहा। वह सद्धर्म को जान नुका था। उसने न क्रोध किया और न दुखी ही हुआ। किन्तु उसने विजयघोप से धर्म सम्बन्धी कुछ प्रश्न किए । विजयघोप उन प्रश्नो का कोई उत्तर नही दे सका। ___ तव जयघोप ने विजयघोप को धर्म ओर यज्ञ का वास्तविक स्वरूप समझाते हुए कहा 'इन्द्रियों का निग्रह करना ओर मनोवृत्तियों का निरोध करना ही सच्चा यज्ञ है । अन्य किसी प्रकार के यज्ञ से न आत्मा का कल्याण हो सकता हे और न ही सुख प्राप्त हो सकता है। __"सत्य, प्रेम, अचोर्य और अपरिग्रह ही धर्म है। सच्चा ब्राह्मण सत्य बोलता है, मबसे प्रेम करता है, चोरी नहीं करता, किसी प्रकार का परिगह नहीं रखता और अपनी वासनाओ पर विजय प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति इसके विपरीत आचरण करता है, वह ब्राह्मण नही हो सकता। "जाति का झूठा अभिमान आत्मा को गिराता है । जाति तो कर्म मे ही बनती है। जो व्यक्ति जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसी ही जाति का मानना चाहिए। जन्म से ही कोई उच्च अथवा नीच नहीं होता।" आज विनयघोप को मच्चे धर्म का स्वरूप ज्ञात हुआ। वह मुग्ध होकर जयघोप को वाणी सुनता रहा। जब जयघोष मोन हुए तब वह बोला आज मे में भी यमण है।" बिजयघोष अमण भी तप-त्याग-माधना में लीन हो गए। दोनो श्रमण जीवन के अल तक माधना में तीन रहे आर अल में निद्र, बुद्ध ..र मुक्त हाए । -तरायन

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