Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 310
________________ उसे इस प्रकार थका-मॉदा, क्लान्त वहाँ खडा देखकर एक तरुणी सुन्दरी नारी ने अपनी दासी को भेजकर मकान मे बुलवा लिया और उससे पूछा “आप इस भीषण गर्मी मे वहाँ वाहर खड़े क्या कर रहे है ? आप कौन है ? किस प्रयोजन से वहाँ खडे है ?" जव अरणक ने बताया कि वह भिक्षु है और भिक्षा लेने निकला है, तो उस तरुणी ने कहा “भला यह अवस्था भी कोई भिक्षु बनने की है ? यह तो ससार के भोगो का सुख लूटने की अवस्था है। आप व्यर्थ ही अपने आपको कष्ट दे रहे है।" अरणक स्वय ही शिथिल हो रहा था। अब उसे उस तरुणी द्वारा सयम के त्याग करने का प्रोत्साहन भी मिल गया। ओर वह सन्मार्ग से भटक गया। साधु वेश का त्याग कर वह उस तरुणी के साथ ही रहने लगा और विपयोपभोगो मे डूब गया । ___जव अरणक बहुत समय तक लौटा ही नही तो उसके साथी भिक्षुओ को बडी चिन्ता हुई-क्या हो गया अरणक को ? लौटा क्यो नही ? खोज करनी चाहिए। खोज हुई, किन्तु कुछ पता न चल सका। उसकी साध्वी माता तो उसके इस प्रकार से अदृश्य हो जाने से इतनी दुखी हुई कि पगला ही गई। पगली-सी होकर वह गली-गली घूमने और मार्ग मे आते-जाते लोगो से पूछने लगी ___ "भाई, आपने कही मेरे पुत्र को देखा है ? वह ऐसा है । उसका नाम अरणक है।" किन्तु पता न लग सका । किसी ने अरणक को देखा नहीं था। देखा हो भी तो जानने पहिचानते नहीं थे । वे सहानुभूति दिखाते हुए उत्तर देते"माता । हमने तो तेरे पुत्र को कहो देखा नही।" एक बार अरणक की दृष्टि गवाक्ष मे बैठकर बाहर नगर की सोदर्यसुषमा को देखते हुए एक पगली स्त्री पर ठहर गई। वह पहिले तो कुतूहल आर कुछ सहानुभूति से उसे देखता रहा, किन्तु जब उसे जाकृति कुछ जानीपहिचानी लगी तो गार से देखा-अरे, यह तो उसकी माता ही है। हाय,

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