Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 308
________________ ११७ कलाकार वलदेव भी उठे, उन्होने भी अपने साथियो की रक्षा के लिए पिशाच से युद्ध किया और अन्त मे परास्त होकर गिरे। अव कलाकार की बारी आई । कृष्ण उठे। उन्होने सारी स्थिति को देखा और समझा। पिशाच बोला___“अव तू चाहे तो अपनी शक्ति आजमाले। किन्तु मैं अब तेरे साथियो को खाऊँगा ही। बहुत भूखा हूं।" कृष्ण ने धैर्य से उत्तर दिया "तेरी इच्छा है । जो चाहे इच्छा तू कर सकता है । अपने मन का तू स्वामी है । किन्तु मुझे जीते विना तेरी इच्छा पूरी होने की नही।" पिशाच पिल पड़ा। किन्तु कृष्ण तो कलाकार थे। जानते थे कि मनुष्य की शक्ति और पिशाच के वल मे कितना अन्तर है। अत. वे शान्त रहकर अकेले पिशाच को लड़ाते रहे। कहते रहे--'अरे शावाश | तू तो वडा बलवान है । भारी योद्धा है । वीर है । मल्ल है. " मूर्ख पिशाच उत्साहित होकर चारो ओर उछल-कूद मचाता रहा। और कलाकार ? कलाकार कृष्ण खडा मुस्कराता रहा और कहता रहा-"अरे, तू तो वडा वीर है, भाई, तू तो वडा योद्धा है... " धोरे-धीरे पिशाच थक गया। उसका बल क्षीण हो गया और वह भूमि पर गिरकर ढेर हो गया। प्रात काल होने पर जब कृष्ण के साथी उठे तब कृष्ण ने अपने विस्मित साथियो के सामने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा “अरे भाई । पिशाच से लडने के लिए कला की आवश्यकता होती है । केवल वल से काम नहीं चलता। तुम भी लडे, और लडा तो मैं भी । किन्तु तुम घायल हुए, मैं घायल नहीं हुआ। वस्तुत: मैं उससे स्वयं लडा ही नही, उसी को लडाता रहा। मैं तो शान्त भाव से खडा होकर उसे बलाता रहा, उकसाता रहा, आर परिणाम तुम्हारे सामने है।" सुनकर माथी खूब हँसे । कहने लगे-"तुम बडे चतुर हो । इसीलिए शायद लोग तुम्हे छलिया कहते हे।" -~-उत्तरा०

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