Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 298
________________ राजाआ का राजा घूमते-घामते वे मृगवन की ओर से ही निकल पडे । आचार्य केशी प्रजा को धर्म-देशना दे रहे थे। उन्हे देखकर राजा शीघ्रता से वहाँ से हट जाना चाहता था । बोला-- "चलो चलो, चित्त । इधर कहाँ ले आए मुझे । चलो, लौट चलो।" "जैसी आज्ञा, महाराज ! चलिए।"-मत्री ने सहज भाव से कहा। राजा ने अपने अश्व को एक एड लगाई । वह तेज दौडने लगा कि तभी राजा ने लगाम खीचते हुए कहा "लेकिन मंत्री, जरा ठहरो तो सही। जाने क्या बात है कि एक क्षण रुककर इन मुनि जी को देखने का मन करता है । यह तो राजाओ के भी राजा प्रतीत होते है ।” अश्व ठहरा लिए गए। राजा चुपचाप दूर से आचार्य को देखने लगा ..." जीवन मे महान् परिवर्तन के क्षण इसी प्रकार चुपचाप चले आते है । राजा आचार्य की सौम्य मुद्रा को, तेजस्वी व्यक्तित्व को देखने लगा और देखते-देखते ही, बिना स्वयं जाने, किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत होकर, घोडे को धीरे-धीरे आगे बढाता हुआ धर्म-सभा के समीप आ पहुँचा। मंत्री का हृदय हर्प से उछलने लगा। उसने जान लिया कि आज तक जो राक्षस था, अब उसके देवता बनने का शुभ संयोग आ पहुँचा था। विना एक भी शब्द वोले वह राजा के पीछे-पीछे चला आया। राजा अश्व से नीचे उतरा और सभा मे जाकर बैठ गया। ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह लोहे को पुतली हो और आचार्य चुम्बक हो, जिनसे खिंचकर वह स्वत. उनके पास जा पहुँचा हो। ___ एक विचिव विमूना की-सी स्थिति मे था राजा परदेशी । उसके कानो मे आचार्य की वाणी पड रही थी--- ___"यह ससार तो जसार है भव्य जीवो । जो सार है वह आत्मा है । उसे जानो।" "इस संसार की माया का क्या लोम ? इस ससार के धन-वैभव का क्या अहकार ? अपनी आत्मा की अनन्त निधि को जानो, भव्य जीवो ।

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