Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 302
________________ १११ अपराजेय अर्हन्नक “अर्हनक ! तुम धन्य हो । जव तक इस धरती पर तुम जैसे धर्मवीर उत्पन्न होते रहेगे तब तक हम देवता भी यहाँ जन्म लेने के लिए तरसते रहेगे। तुम्हारे पास यह जो धर्म का धन है, उसके आगे संसार का सारा वैभव तुच्छ है । अत मैं तुम्हे अब क्या हूँ ? 'वस, ये दिव्य कुन्डल तुम मेरी मैत्री के चिह्न स्वरूप स्वीकार करो।" अनिच्छा होते हुए भी अर्हन्नक ने वे कुण्डल ले लिए। चलते-चलते, अर्थात्, समुद्र-यात्रा करते-करते वह मिथिला पहुंचा। वहाँ के राजा कुम्भ की राजकुमारी मल्लि के अद्भुत गुणो का समादर करने के लिए उसने वे कुण्डल उसे भेट कर दिए। सच है, कुछ व्यक्ति होते है जो धर्म और गुणो को संसार की श्रेष्ठतम वस्तु मानते है। -~~-ज्ञाता० १११२

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