Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 300
________________ अपराजेय अर्हन्नक चम्पानगरी का धन श्रेष्ठी सत्यासत्य को जानने वाला श्रावक-श्रेष्ठ था । दूर-दूर देशो तक व्यापार करके उसने खूब धन अर्जित किया था और उस धन का उपयोग उदारतापूर्वक समाज के हित मे करके खूब यश भी अर्जित किया था । उसका पुत्र अर्हन्नक भी अपने पिता के योग्य ही सन्तान था । पिता के धवल यश को उसने अपने गुणो से द्विगुणित कर दिया था । यहाँ तक कि देवेन्द्र इन्द्र ने भी उसकी प्रशसा अपनी देवसभा मे करते हुए कहा था “ अर्हन्नक वडा धर्मनिष्ठ है । उसे धर्म से विमुख करना सम्भव नही ।" एक देवता ने यह प्रशंसा सुनकर अर्हन्नक की परीक्षा लेने का निश्चय किया और पृथ्वी लोक की ओर चल पडा । उस समय अर्हन्नक व्यापार के लिए समुद्र यात्रा पर था । उसका जलपोत सागर की मन्द मन्द लहरियो पर वडी शान से थिरकता हुआ-सा आगे वढता चला जा रहा था । देवता ने अपनी शक्तियो का प्रयोग किया और समुद्र मे एकाएक भीषण तूफान गरज उठा। नन्ही- नन्ही लहरियाँ अव भयानक अजगरो की भाति मुँह फाडकर पोत को निगल जाने के लिए आतुर दिखाई देने लगी । तेज पवन पोत को उड़ा ले जाने पर तुल गया और अन्धकार उसे ग्रसने के १०६

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