Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 292
________________ २३ शुभ-संयोग श्रीकृष्ण अपनी लीला का संवरण कर विदा हो चुके थे । द्वारिका का वैभव अतीत की घटना बनकर रह गया था। यादव जाति का शौर्य ओर प्रताप इतिहास की बात बन चुकी थी । एक सूर्य जो अपने असीम तेज से आकाश और पृथ्वी को प्रकाशित हुए था, वह अस्त हो चुका था । किये इस अन्धकार और निराशा की स्थिति ने श्रीकृष्ण के बड़े भाई वलभद्र के हृदय मे वैराग्य उत्पन्न कर दिया था और वे साधु बनकर विचर रहे थे । शेष सब कुछ परिवर्तित हो गया था, किन्तु बलभद्र के शरीर की कान्ति और सौदर्य वैसा ही था । शायद सरल साधु वेश के कारण वह और भी अधिक स्वाभाविक होकर खिल उठा था । ऐसा सात्विक सौदर्य, कि देखने वाले की आँख एक वार उठे तो फिर वही टिक कर रह जाय । दृष्टि उनके सौम्य सुन्दर मुख पर से फिर हटाए हटे ही नही । मन अतृप्त ही बना रह जाय । ऐसी इच्छा हो कि उस सोदर्य को देखता ही रह जाय, एकटक, निर्निमेप | ऐसे वलभद्र एक दिन भिक्षाटन हेतु किसी नगर मे प्रवेश करने को मुनि निद्वन्द अपने मार्ग मुनि को देखा । उनके ये कि नगर से बाहर एक पनघट मार्ग मे पडा । पर जा रहे थे। एक पानी भरने वाली युवती ने १०१

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