________________
महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं विषय भोग का कही अन्त नहीं है । जितना हो उन्हे भोगा जाता है उनना ही अधिक उन्हे ओर भी भोगने की लालसा जागती है। विगय कभी सन्तुष्ट होते ही नही।
अत साधु को चाहिए कि वह समभाव रखे । शुभ अथवा अशुभ गन्द, स्पर्श, रम, प, गंध मे साधु को तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना त्राहिए । उन सभी को उसे सद्भाव से ग्रहण करना चाहिए ।
साधु-धर्म कालिक द्वीप के समान है। उसका आश्रय पाकर संसार समुद्र मे दुखी होने वाले जीव सान्त्वना ओर शान्ति प्राप्त करते है। साधु को उन अश्वो के स्थान पर समझ कर हमे उम कथा का मर्म जानना वाहिए । जो माधु पचेन्द्रिय के विषयो मे लुब्ध न होकर उनसे दूर रहते है वे भव-बन्धन के मामारिक कष्टो से वन जाते है । जो विपय-तोलुप हो जाने र सो के कारणभूत कर्म-बन्धनो को प्राप्त होते है।
जिम प्रकार मानिस द्वीप मे न्यित ले जाए गए अश्व दुःखी हुए, उनी प्रगर मान-मर्म मे प्रष्ट माध दुरा के पात होते है।
--ज्ञाता सूत्र १७