Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 213
________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ प्रार्थना अनुचित नही थी । मुनिराज ने स्वीकार कर लिया । वे नगर मे चले आये। उपचार हुआ और शीघ्र ही वे स्वस्थ व नीरोग हो गये । २५० नही हुई । उनकी किन्तु इन कर्मो की गति को क्या कहिए ? नीरोग हो जाने के बाद भी मुनिराज की उस स्थान से विहार करने की इच्छा आत्मा मे असावधानी आ गई थी । वे उसी नगरी में रहने की ही इच्छा करने लगे, आनन्द मनाने लगे और नशीले पदार्थो का सेवन करने लगे । ज्ञानी और ध्यानी होते हुए भी अशुभ कर्मों के उदय के कारण उनकी आत्मा असावधान हो गई और कर्म उन्हें नीचे की ओर घसीटने लगे । उनके साथ जो अन्य मुनि थे, वे बडे विचार मे पडे – समस्त राजवैभव को तृण की भाँति त्यागकर इतनी कठोर तपस्या करने वाले राजप की यह क्या दशा ? सासारिक प्रलोभनो ने उन्हें फिर से अपनी ओर इस प्रकार आकर्षित कर लिया जैसे चुम्बक लोहे को करता है । राजप ने अपनी समस्त मर्यादा को त्याग दिया, सयम नियम की उन्हें तनिक भी चिन्ता न रही ? विवश होकर उन्होने पथक मुनि को उनकी सेवा मे छोड़कर अन्यत्र विहार कर दिया । पथक मुनि गुरु की सेवा करते रहे। एक दिन कार्तिक मास की पुर्णिमा को राजप आनन्द से भोजनादि कर शयन-सुख ले रहे थे । पथक मुनि ने कार्तिक मास का प्रतिक्रमण किया और 'खमासमणो' द्वारा गुरु से क्षमा माँगने के लिए उनके चरणो का स्पर्श किया। गुरु की सुख-निद्रा भग हुई और वे क्रोध में भरकर चीख उठे "अरे, यह कौन दुप्ट मेरी सुख की नीद मे व्याघात उत्पन्न कर रहा है।" पथक मुनि ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक हाथ जोडकर उत्तर दिया"गुरुदेव ! यह तो में आपका विनीत शिष्य पथक हूँ। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके आपसे अपने अपराधों की क्षमा माग रहा हू । गुरुदेव, मेरे अपराध को क्षमा करिये। मुझसे आपकी नींद मे व्याघात उत्पन्न हो गया, किन्तु मेरी ऐसी भावना नहीं थी । " -

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