Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 225
________________ २६२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ आनन्द ने तब कहा-"भगवन् । मुझे अवविज्ञान प्राप्त हुआ है। उसके बल पर मै उत्तर दिशा मे चूलहेमवन्त पर्वत तक, दक्षिण, पश्चिम एव पूर्व दिशा मे पाँच सौ योजन समुद्र तक, ऊपर सौधर्म देवलोक तक, नीचे प्रथम नरक के लोलुप्य नरकावास तक देख सकता हूँ। मुझे इतना विशाल अवधिज्ञान प्राप्त हुआ है।" गौतम को आश्चर्य हुआ। उन्होने कहा-"आनन्द | गृहस्थ को इतना विशाल अवधिज्ञान नहीं मिल सकता । अनशन मे तुमसे यह मिथ्या सभापण हुआ है, अत शीव्र इसकी आलोचना व प्रायश्चित्त कर तुम्हे शुद्ध हो जाना चाहिए।" यह सुनकर आनन्द ने प्रश्न किया-"प्रभो । भगवान महावीर के शासन मे सत्याचरण का प्रायश्चित्त होता है या असत्याचरण का ?" "असत्याचरण का।" गौतम ने दृढ स्वर मे कहा। आनन्द-"प्रभो । तव तो यह प्रायश्चित्त कही आपको ही तो नहीं करना होगा? क्योकि असत्याचरण तो आपसे ही हुआ है।" गौतम का मन सशकित हुआ। वहाँ से चलकर वे भगवान महावीर के सन्निकट आये और उन्हे सारा हाल कह सुनाया। __भगवान महावीर ने कहा-“गौतम | इस प्रसग पर असत्याचरण तो तुमसे ही हुआ है । तुम आनन्द के पास जाकर तुरन्त क्षमा याचना करो।" विनयमूर्ति गौतम शीघ्रतापूर्वक आनन्द के पास पौपधशाला पहुंचे। वे बोले-"आनन्द | तुम धन्य हो । भगवान महावीर ने तुम्हारे वचन को सत्य घोपित किया है । मेरे कथन से तुमको कप्ट हुआ होगा? मृपा-भाषण के लिए मै क्षमा चाहता हूँ।" ऐसा कहकर गौतम भगवान के पास लौट आये। आनन्द ने वीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करते हुए अन्तिम काल मे अनशन-आलोचना आदि कर शरीर त्यागा और वह सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में उत्पन्न हुआ। गृहस्थ-जीवन मे श्रावक के बारह व्रतो का विधिवत् पालन करते हुए भी उस दुर्लभ पद को प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी अभिलापा योगिजन करते है। -उपासकदशा

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