Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 269
________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं पुष्करिणी क्यो न बना दूँ ? उसका शीतल जल पीकर सभी जन शान्ति ओर सुख प्राप्त करेंगे । ७८ " अपने इस विचार के अनुसार उसने कार्य कर भी डाला । समर्थ था, समृद्ध था । कोई बाधा उसे थी नही । एक विशाल पुष्करिणी उसने तैयार कराई । उसके चारों ओर चार सघन वनखण्ड थे । पूर्व के वनखण्ड मे उसने चित्रशाला वनवाई | दक्षिण में पाठशाला, पश्चिम मे ओपधशाला और उत्तर मे अलकारशाला । इस प्रकार दूर-दूर के थके-मांदे यात्री आकर वहाँ विश्राम पाते । नन्द मणिकार के वे गुण गाते । घर-घर मे उसका यश फैल गया । “कुछ समय बाद वह मणिकार सोलह महारोगो से पीडित हुआ । अनेक प्रकार की चिकित्सा कराने पर भी वह स्वस्थ नहीं हुआ । उस समय रोगी रहने भी उसका मन अपनी पुष्करिणी में ही अटका रहता था, जिसने उसे लोगो की प्रशंसा का पात्र बना दिया था । पुष्करिणी के प्रति तीव्र आमक्ति के कारण वह मृत्यु को प्राप्त कर उसी पुष्करिणी मे मेढक (दर्दुर) बनकर उत्पन्न हुआ ! "लोग उसी प्रकार वहाँ आते-जाते रहते थे । नन्द मणिकार की प्रशना करते थे । वह उस प्रशमा को सुना करता ओर गंभीर विचार किया करना । होते-होते उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । अब उसे अपनी तीत्र आमति के कारण होने वाली इस दुर्दशा पर बडा पश्चात्ताप होने लगा । गोतम । कालान्तर में में एक बार फिर राजगृह आया । पुष्करिणी पर स्नान ध्यान करने, जल पीने ओर जल भरने, आने-जाने वाले लोगों से उस मेढक ने भी मेरे आगमन का समाचार सुना और वह मेरे दर्शन करने के लिए चल पडा । मार्ग में किसी घोड़े के पैर के नीचे कुचलने मे बह आहत हो गया । आगे न बढ सका। अत उनने वही से मुझे भक्तिपूर्वक वन्दन किया। उस नमय अपनी पूर्व की आसक्ति पर उसे बडा पश्चात्ताप था । . गौतम ! पश्चात्ताप ने दीप समाप्त होते हैं । मृत्यु के बाद वह मेटक ही नह तेजस्वी दर देव बना है ।" - ज्ञाना. १/१३

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