Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 272
________________ " क्या कहते हो, पुरोहित ? स्कन्दक तो ससार त्यागी मुनि है । उसने तो अपना ही राज्य त्याग दिया । भला मेरा राज्य वह क्यो हडपने लगा ? अवश्य तुम्हे भ्रम हुआ है ।" पालक अपनी जिद पर अड़ा रहा। उसने तो पड्यन्त्र रच लिया था । बोला | “महाराज | यह सन्यास और यह धर्म सब ढोग है | आइये मेरे साथ, मैं आपको सचाई के दर्शन कराता हूँ ।" राजा मान गया । पालक के साथ रात्रि के अन्धकार मे जाकर उसने वे शस्त्रास्त्र देखे जो स्वयं पालक ने छिपाए थे । मूढ राजा को पालक की बात पर विश्वास हो गया । उसने कहा - “तुमने मुझे बचा लिया, पुरोहित । तुम्हारी बुद्धि को धन्य है । अब तुम शीघ्रता करो | जैसे चाहो वैसे इन ढोगियो को दण्ड दो ।" दुष्टात्मा पालक को मनचाहा मिल गया । जल्लादो को लेकर और एक विशाल कोल्हू को साथ ले जाकर दूसरे दिन वह स्कन्दक से बोला “स्कन्दक | अब याद कर लो अपने परमात्मा को । पुकारो अपने धर्म को । मैं भी देखूं कौन तुम्हारी रक्षा करता है । मेरा अपमान किया था न ? अब भुगतो उसका परिणाम | ये जल्लाद देख रहे हो ? ये कोल्हू देख रहे हो ? एक-एक कर तुम्हारे पाँच मो शिष्यों को और तुम्हे इस कोल्हू मे पेलूंगा । मॉस के लोथडे चील - कौवो को खिला दूंगा । पुकारो पुकारो अपने धर्म को ?” स्कन्दक मुनि ने सारी परिस्थिति को देखा और समझा । भगवान के वचन उन्हे भूले नही थे - "वहाँ तुम्हे भयकर मारणातिक उपमर्ग होगा ।" किन्तु महासागर की भाँति वे शान्त थे । अभय थे । प्रेमपूर्ण वाणी मे उन्होंने कहा ------ "पालक | तुम भ्रम मे हो । न मैने कभी तुम्हारा अपमान किया था और न कोई अहित ही चाहा था । वह तो तुम्हारा वृथा जहकार ही था । आज भी तुम अज्ञानवश अपने कर्तव्य अकर्तव्य को जान नही रहे हो । ये

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